साथण ढोल सुहावणौ, देणौ मो सह दाह।
उरसाँ खेती बीज धर, रजवट उलटी राह॥
हे सखी! मेरे सती होने के समय बड़ा सुहावना ढोल बजवाना क्योंकि यही तो वह आनन्द की घड़ी है जब मैं अपने पति के साथ दिव्य भोग भोगने के लिए स्वर्गारोहण करुँगी। क्षात्र-धर्म की इस विपरीत रीति को क्या तू नही जानती कि रजवट(क्षत्रियत्व) का बीज बोया तो जाता है पृथ्वी पर और खेती फलती है स्वर्ग में। अर्थात् समरांगण में जो वीरता दिखलाई जाती है उसका फल वीर को वीर-गति पाने पर स्वर्ग के दिव्य भोगों के रूप में मिलता है।