अंतर प्रीत अथाह, संचय परहित संपती।
शहरां सूं ह सदाह, रुडा़ गांव रा रुंखडा़॥
समंदर लागे सोवणां, निरमळ जिणरो नीर।
मरुधर मांहीं मानवी, निरखत बैठा तीर॥
गैरा समद उंचा गढ, ओ'प गिरी चहुं ओर।
मरुधर म्हारे मनबसी, काळजिया की कोर॥
पुरब मैं उगियो पतंग, महकी धरती मात।
खेतां में छायी खुशी, पहर भयो परभात॥
बरसण आयी बादळी, करसां हिवड़े कोड।
मधरा नाचे मोरिया, हिवड़े करता होड़॥
हरदम दरसे हरखतो, बिरली जिणरी बात।
भारत मैं मन भावतो, गरबीलो गुजरात॥
आखर अंतस औपता, प्रीत सवाई जाण।
संकट भेळा व्हे सदा, गावां तणों प्रमाण॥