कंत न मावै कवच में, हरख न मावै गेह।
अंग न मावै अंगियां, नहँ मन मावै नेह॥
अपने पति को स्वतंत्रता-संग्राम में युद्ध के लिए उद्यत देख वीरपत्नी अत्यधिक उल्लसित होकर कहती है कि हे सखि! वीररस के संचार के कारण प्रियतम का शरीर कवच में नहीं समा रहा है और मेरे अड़्ग चोली में नहीं समा रहे है तथा आनंद मन में नहीं समा रहा है।