चारण मनहर कवि चतुर, पूंगीवाद्य प्रवीन।
चतुर सपेरा भेप करि, कंध पिटारा लीन॥
गावत पनिहारी सरस, चलत सपेरी चाल।
बोल सपेरी बोलियत, कंठ ठूमरन माल॥
सांप पिटारे एक महँ, एक कियउ गर-हार।
कंघा अरु लघु काच इक, लियउ दुमाले धार॥
आँखिन महँ अंजन दियउ, करिके भगवाँ भेस।
इक लघु टुकरा वस्त्र को, लिय लपेट कटि देस॥
दांतन महँ मिस्सी दई, द्वै सोने की मेख।
कौंन परीक्षक कहि सके, है यह कृत्रिम भेख॥
दवा दवा बोलत निपट, अटपट पांव धरंत।
चतुरन की आंखिन महीं, डारत धूरि चलंत॥
धन्यवाद को पात्र यह, मनहरदास विशेष।
अपने स्वामिरु देश हित, कीनो भगवाँ भेष॥
काहूकों न पिछान दिय, अपनी कला विकास।
आयो ड्यौढि निकट यहँ, रहत जहाँ रणवास॥
धात्री गोरा नाम की, स्वपचनि भेष बनाय।
पूंगी को संकेत सुनि, लाई सिसुहिं लुकाय॥
अजित सपेरे हाथ दिय, पाहरु दीठ चुराय।
तुरंत पिटारे में तबै, लीनो सिसुहिं लुकाय॥
चलत भए इहिं चाल सों, मारवाड़ की ओर।
सबहि भए निश्चिंत अब, रणबंके रट्ठोर॥