चारण मनहर कवि चतुर, पूंगीवाद्य प्रवीन।
चतुर सपेरा भेप करि, कंध पिटारा लीन॥
गावत पनिहारी सरस, चलत सपेरी चाल।
बोल सपेरी बोलियत, कंठ ठूमरन माल॥
सांप पिटारे एक महँ, एक कियउ गर-हार।
कंघा अरु लघु काच इक, लियउ दुमाले धार॥
आँखिन महँ अंजन दियउ, करिके भगवाँ भेस।
इक लघु टुकरा वस्त्र को, लिय लपेट कटि देस॥
दांतन महँ मिस्सी दई, द्वै सोने की मेख।
कौंन परीक्षक कहि सके, है यह कृत्रिम भेख॥
दवा दवा बोलत निपट, अटपट पांव धरंत।
चतुरन की आंखिन महीं, डारत धूरि चलंत॥