कुंण हिंदू कुंण तुरक, कवण काजी ब्रह्माचारी।
कुंण मुल्ला कुंण सेख, जती कुंण जंगम विचारी।
कुंण बाळक कुंण वृद्ध, कवण रंकस कुंण राजा।
सूर धीर का काम, अवर का नहीं अनाजा।
की तिलक जटा मुद्रा कियां, कूड़ कमंडळ काठ कौ।
उण गह्यौ सांच लहियै ‘अलू’, औ पंचसेरी आठ कौ।
इस दुनिया में कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान? कौन काज़ी है और कौन ब्रह्मचारी? कौन मौलवी है और कौन शेख? कौन जैन यति है और कौन शैव सन्यासी? कौन बालक है और कौन वृद्ध? कौन राजा है और कौन प्रजा? उस परमात्मा की दृष्टि में सभी एक समान हैं! ऐसी समदृष्टि उन्हें ही प्राप्त है जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया है, अन्य तो इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। ललाट पर चंदन का तिलक लगाने, लम्बी जटा बढ़ाने अथवा योग की नाना मुद्रायें करने और लकड़ी का कमंडल रखने से क्या प्रयोजन है? यह सब केवल बाह्याडंबर मात्र हैं। इनसे परमेश्वर का कोई वास्ता नहीं है। इसलिए अलूनाथ कहता है— हे प्राणी! सच्चा अनुभव से ही यह प्रतीत होगा कि वही एक परमात्मा प्राणी मात्र में वैसे ही व्याप्त है जैसे एक मण का तोल सर्वत्र समान रूप से आठ पंचसेरी का ही होता है।