इणि अनेक उध्दरेय, नाग निरजर नर नारी।

कारण सँहँ कारणां, अचल ईसर अधिकारी।

यौ माता यौ पिता, सत्य यौ यौहीज सखाई।

असरण सरण विरद्द, विजय पंजर सरणाई।

मिलियौ सरूप आकास मणि, भांण सोम दीसै भलू।

विसनाथ विश्वासी विसन, यौ प्रभु चिंतामणि ‘अलू’॥

इस परमात्मा ने जाने कितने देव, नाग, नर और नारी का संसार सागर से उध्दार किया है? सृष्टि के निमित्त और उपादान कारण होने से एकमात्र वह परमात्मा ही सब कारणों का कारण है। ब्रह्मांड में अखंड एवं अविचल रूप से व्याप्त रहने वाला केवल ईश्वर ही चराचर जगत का मालिक कहलाने का अधिकारी है। प्राणी मात्र का माता, पिता और सखा केवल वही है। उसका प्रथम विरुद ही यह है कि जिनका संसार में कोई भी नहीं, ऐसे बे-सहारों, निराश्रितों को वही शरण देने वाला और शरणागतों के लिये अभय होने का विजय-स्तोत्र है।

उसका स्वरूप आकाश के समान सर्व-व्यापक है और उसी के तेज से सूर्य और चंद्र प्रकाशित हो रहे हैं। अलूनाथ कहता है— हे जगत के स्वामी विष्णु! तुम विश्व के कण-कण में समाये हुए हो। हे प्रभो! संसार के प्राणियों की इच्छा-पूर्ति करने वाले चिंतामणि-स्वरूप आप ही हो।

स्रोत
  • पोथी : सिद्ध अलूनाथ कविया ,
  • सिरजक : अलूनाथ कविया ,
  • संपादक : फतहसिंह मानव ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकेदमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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