पांणी पाक पुंणां, मांहि मींडक मछ ब्यावे।
भोजन पाक किम भणां, उडै माखी अेंठावै।
गोबर पाक किम गिणां, फिरै सुरभी चहुंबारा।
काया पाक किम कहां, बहुत मळ भरी विकारां।
ऊपजै खपै इण में ‘अलू’, ईं धरती औ हिज बिसन।
अजोणीनाथ तोनैं अम्हा, किणी भांत पूजां किसन॥
हे परमात्मन्! जल को पवित्र मानकर इसका तुम्हें अर्घ्य चढ़ाऊँ तो कैसे जब कि मच्छी एवं मेंढक इससे जन्म धारण कर इसे अपावन बना देते हैं। भोजन का नैवेध्य चढ़ाऊँ तो कैसे जबकि उड़ती हुई मक्खी आकर उसे झूठा कर देती है। गाय के गोबर का चौका लगाऊँ तो कैसे जब कि गाय अपावन वस्तु (मल) को भी खा लेती है। और तो और, इस शरीर के माध्यम को पवित्र मान कर तुम्हारी पूजा करूँ भी तो कैसे जबकि इसमें मल-मूत्र और नाना प्रकार के विकार भरे पड़े हैं। अलूनाथ कहते हैं—इस धरती पर असंख्य जीव प्रतिपल पैदा होते हैं और पुनः उसी में लीन हो जाते हैं। अतः यह भी पवित्र कहाँ रही? अस्तु, हे स्वयंभू कृष्ण! तुम्ही बताओ कि तुम्हारी पूजा-अर्चना करूँ तो किस विधि-विधान से?