कहां घंट टामंक, कहां मादळ दमकारा।

कहां नाद गड़गड़ै, कहां तंती झणकारा।

कहां ताळ कंसाळ, कहां ऊससै अंबर।

कहां गहर गंभीर, कहां दीसै दणियायर।

बिण जीभ कंठ ठाढो बयण, बिन मूरत की चक्खवै।

अचम्भो एक दीठो ‘अलू’, हद मांही बेहद हुवै॥

साधक का मन जब अंतर में समाहित हो जाता है तो स्वतः ही अनहद नाद स्फूर्त्त होता है और घंटा, नगाड़ा, मृदंग, झालर आदि कांस्य वाद्यों का निस्वन और वीणा के झंकृत तारों की सुमुधर ध्वनि सुनाई देने लगती है। कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है मानो आकाश में गंभीर मेघ-गर्जन हो रहा है। चेतना जब लय-योग की गहनतम गहराइयों में उतर जाती है तो ऐसी प्रतीत होती है मानो चारों ओर महाशून्य व्याप्त हो गया है कभी-कभी अंतर में सूर्य के तेजोमय प्रभा-मंडल के दर्शन होते हैं। महामौन की ऐसी अवस्था में कंठ एवं जिह्वा के बिना अजपा जाप स्वतः होता रहता है। ऐसी उच्च ध्यानावस्था में उस निराकार परम-सत्ता के दर्शन होते हैं। अलूनाथजी कहते हैं—उसने समाधि की इस अवस्था में ऐसा आश्चर्य देखा कि इस सीमित काया में वह अनंत परम-सत्ता कैसे समा जाती है जिसका कहीं ओर छोर नहीं है।

स्रोत
  • पोथी : सिद्ध अलूनाथ कविया ,
  • संपादक : फतहसिंह मानव ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकेदमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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