कला का आधार
मानव-मन-मस्तिष्क अपने सौन्दर्य के विविध उपादानों की खोज में रहा है। कला के क्षेत्र में अनेक नवीन उद्भावनाओं और अन्वेषणों से उसने अपने आप को सुसंस्कृत रूप दिया। आदिकाल से आज तक मनुष्य निरन्तर अपनी आवश्कताओं को तलाशता हुआ नये-नये आविष्कारों के अन्वेषण में लगा रहा है। अन्य जीवों से मनुष्य की यही भिन्नता है। मानव ने कुदरत की विराट चेतनाओं और सौन्दर्य से परिपूर्ण रूपों तथा लीलाओं को बड़ी बारीकी से निहारा है। प्रकृति के जितने भी क्रियाकलाप उसने देखे उन सब में उसकी प्रतिभा-मनिषा ने अखूट चेतना के दर्शन किये और उससे प्रेरित हो कर वह जो पहले कभी देखने को नहीं मिली ऐसी रचनाएँ बनाने में सफल रहा।

राजस्थान की विशिष्ट जीवनधर्मिता का प्रभाव बड़े गहरे रूप में लोकचित्रकला में भी देखने को मिलता है। चित्रकला में भाँति भिति चित्रों एवं अंकन के अन्तर्गत कला पद्धतियों के विविध आधार मिलते हैं। उन सभी में भक्ति के वीर भावों के उदात्त चित्रण देखने को मिलते हैं। महिलाओं द्वारा दीवारों पर जो थापे बनाये जाते हैं उनमें राजस्थानी जनजीवन से जुड़े कई मांगलिक और आदर्श संस्कृति रक्षक कलात्मक चित्र उकरे मिलते हैं। सभी थापों में राजस्थानी धर्म-संस्कृति के प्रतीक देवी-देवताओं के आदर्श स्वरूप परिलक्षित होते हैं। साँझी चितरावण में भी इस तरह मनुष्य ने चित्रण के विविध आयामों से स्वयं को संतुष्ट किया। ये चित्रण सर्वव्यापी हुये। आंगन में भी अल्पना के रूप मिले। देहरी में भी विहंसे और दीवालों पर भित्तिचित्र के रूप में अभिमण्डित हुए। इनमें जमीन पर जो चित्रण प्रारम्भ हुए उनमें सर्वाधिक प्रभाव रंगों का रहा। ये चित्रण यहाँ उपयोगिता की दृष्टि से उतने कारगर सिद्ध नहीं हुये कारण कि घर के सदस्यों द्वारा ही ये सुरक्षित नहीं रखे जा सके और दो-चार दिनों में ही गंदलाये और मिटाये जाते, पर यह प्रयोग दीवारों पर बड़ा कारगर सिद्ध हुआ। जमीन की तुलना में दीवारें काफी हद तक सुरक्षित रह सकती हैं जहाँ किसी की चरण-धूलि भी नहीं पड़ती और न वे धूमिल होती हैं। भींत अर्थात् दीवार पर जो चित्रकारी की जाती है वह भित्तिचित्रण के नाम से जानी जाती है। इस चित्रण में मुख्यतः धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवेश से जुड़े चित्र ही सर्वाधिक मुखरित रहे हैं ; जो आगे चलकर साँझी का रूपावतार बने।


साँझी का परिचय
सन्ध्यावेला का हमारे यहां बड़ा महत्त्व है। प्रातः होते-होते सभी जीव अपना घर छोड नित्यकर्म में लग जाते हैं मगर संध्या के समय सभी अपने घर लौट आते हैं। सुबह का भूला भी शाम को घर लौट आता है। दिनभर की थकान और कसमकश के बाद हर प्राणी शाम को एक विशेष प्रकार का आनन्द महसूस कर अपने को हल्का करता है और दिन भर में किये गये परिश्रम थकान से निजात पाता है इसलिए सांझ बड़ी सुहानी, शुभ और मंगलदायिनी कही गयी है। कई अच्छे कार्य सांझ को ही सम्पादित होते हैं। विवाह का तो सर्वोत्तम मुहूर्त ही संध्याकाल यानी गोधूलि का समय कहा गया है, जब सांझ धरती पर उतर आती है। इसी सांझ के स्वागत में पक्षी वर्ग नाना प्रकार के कलरव करता है और गीतों की सुमधुर गूंज में खो जाता है। यों तो सांझ प्रतिदिन की ही सुहानी होती है किन्तु शरद की सांझ का तो महत्त्व ही निराला है। सांझी इसी शरद में बनाई जाती है जब प्रकृति अपने किशोर रूप में एक विशेष कांति, लावण्य और कैशोर्य लिये फूट पड़ती है। विद्वानों ने सांझी को कई रूपों मे देखा, खोजा और समझा है। यह अध्ययन भी बड़ा दिलचस्प है।

साँझीकला अपने मूल रूप में गोबर पर विविधरंगी फूलों का सांस्कृतिक रचाव है। गोबर द्वारा जो विविध आकृतियां उभारी जाती हैं उन्हें फूलों द्वारा श्रृंगारित कर मनमोहक बनाई जाती है। फूलों के सम्पूर्ण परिवेश में जब साँझी खिलती है तब ऐसा लगता है कि जैसे पूरी संध्या खिल उठी है। संध्या का खिलना, स्वयं साँझी का खिलना, गोबर से लीपी हुई दीवार पर  बनी साँझी और उस संध्या से जुड़े पूरे परिवार का खिलना फिर से एक संझ्या से दूसरी संझ्या का जुडाव करते हुए पूरे गाँव और बस्ती की संझयाओं का आपसी खिलावन बालिकाओं के सुमधुर गीतों के साथ बन पड़ता है। तब का वातावरण ही किसी नई सृष्टि की उ‌द्भावना लिये लगता है।


साँझी का नामकरण
साँझी को कुछ विद्वानों ने पार्वती, कुछ ने दुर्गा तो कुछ ने गौरा माना है। ब्रज में इसका सम्बन्ध राधा-पार्वती से जोड़ा गया है। शिवपुराण में ब्रह्मा की मानसी कन्या के रूप में संध्या की कथा कही गई है। इस कथा के अनुसार सर्वप्रथम ब्रह्मा ने दक्ष, मरीचि, अत्रि, पुलह आदि दस प्रजातियों को पैदा किया और संध्या समय ध्यान करते हुए अपने मन से एक सुन्दरी को जन्म दिया। संध्या को जन्म देने के कारण संध्या की तरह इसे शोभनीय स्वरूप दिया और उसका नामकरण ही संध्या कर दिया। शिवपुराण के अनुसार संध्या पितृप्रसू है। संध्या के अशरीरी शरीर का निम्न भाग सायं संध्या पितरों को प्रिय भी है। श्राद्धपक्ष सभी पितरों के आविर्भाव का समय है। पितरों के साथ संध्या का यह घनिष्ठ सम्बन्ध पितृपक्ष में साँझीपूजा का कारण हो सकता है। भाद्रपद पूर्णिमा को, जिसे मालवा, राजस्थान में पाटलापूनम कहते हैं, पहला श्राद्ध होता है। पहले श्राद्ध के साथ ही साँझी की स्थापना होती है एवं सर्वपितृ अमावस्या को पितरों की विदाई के साथ ही साँझी का भी विसर्जन हो जाता है। साँझी के अंकन में कुंवार-श्राद्ध, वृद्ध-श्राद्ध और सुहागिन-श्राद्ध के पक्ष क्रमशः पंचमी, सप्तमी और नवमी के दिन अंकित भी किये जाते हैं। लोककलाविद् देवीलाल सामर ने संझ्या को एक देवी के रूप में मानते हुए अपने मत की पुष्टि में लिखा- श्राद्ध, श्रद्धा एवं स्मृतियों के इस पुनीत पर्व पर यहां महिमामयी साँझीबाई की मृत्यु को विशेष रूप से याद करने की परम्परा इस साँझी कला में प्रदर्शित हुई जान पड़ती है। वैसे तो हर परिवार में उसी परिवार के मृतजनों के श्राद्धपक्ष मनाये जाते हैं। दूसरे परिवार के मृतजनों का स्मृतिपर्व मनाने का प्रश्न ही नहीं उठता, परन्तु साँझीबाई का यह सामुदायिक रूप वास्तव में आश्चर्य पैदा करने वाला है। साँझीबाई, चाहे वह किसी जाति की हो, निश्चित ही एक चमत्कारिक महिला रही होगी, जिसे आज उसके विशेष परिवार या जाति वाले ही नहीं याद करते बल्कि वह समस्त परिवार की क्षेत्रीय एवं जातीय सीमाओं को लांघकर एक मान्य देवी के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है।

सांझीकला का उद्भव व विकास
मोहनजोद‌डो तथा हडप्पा की खुदाई में आदिकाल की जिन विविध सभ्यताओं के सांस्कृतिक पक्षों का उद्घाटन हुआ है उनसे यह बात भी प्रमाणित हो चुकी है कि वैदिक सभ्यता के आविर्भाव से कई शताब्दियों पूर्व हमारे देश में आदिशक्ति की पूजा का प्रचलन रहा है। इस शक्ति के अन्तर्गत मुख्यतः दुर्गा-पार्वती की पूजा के कई स्वरूप देखने को मिलते हैं। सांझी का एक रूप इसी भावना को पुष्ट करता हुआ पाया जाता है। सांझीकला कन्या-कलाओं की एक विशिष्ट पारम्परिक धरोहर है। इसका फैलाव राजस्थान से प्रारम्भ होकर गुजरात, मालवा, हरियाणा, दिल्ली, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और ठेठ नेपाल तक देखने को मिलता है। इसके विभिन्न नामों में संजा, सांझी, संध्या, सैझा, संझुली, साँझुली, सांझुलदे, सिंझा, सांझया नाम प्रमुखता से मिलते हैं। मेवाड़-मालवा में यह संज्ञा हंझ्या हांजी के रूप में भी जानी जाती है।
राजस्थान के हाड़ौती, शेखावाटी, मारवाड़, मेवाड़, भरतपुर, दूनावाटी, मालवा हरियाणा के ग्रामीण इलाकों व अंचलों में सांझी अपूर्व हर्षोल्लास के साथ मनाई और खेली जाती है। राजस्थान में यह पितृपक्ष, ब्रजमंडल में श्रावण एवं शेष जगह पर नवरात्रि, पितृपक्ष और दशहरे के बीच के दिन में मांडी जाती है। मालवा के श्रीगौड़ ब्राह्मणों के घरो में शादीव्याह के मौके पर भी सांझी पूजने की प्रथा है। गणेश स्थापना के साथ सांझी को भी स्थापित किया जाता है। कुछ जातियों में आश्विन पंचमी को श्राद्ध करते समय कुल कुंवारों की मृत्यु की स्मृति में उनकी गोबर की मूर्तियां बनाकर भोग आदि लगाने की परम्परा व लड़कियों द्वारा गाये जाने वाले जो सांझी-गीत मिलते हैं उनमें भी इसके कोई प्रमाण हाथ नहीं लगते।

डॉ. महेन्द्र भानावत ने राजस्थान में बहुप्रचलित बगड़ावत नामक लोकगाथा से इसके कुछ तथ्य उद्घाटित किये हैं। उनके अनुसार संझ्या बलाई जाति की लड़की थी जो बाघजी द्वारा उनके सेवा में रहे खोड़िये (लंगड़े) ब्राह्मण को दे दी गई। राजस्थान में सांझी एक लोकदेवी के रूप में प्रतिष्ठित अनिंध्य सुन्दरी है जो अत्यन्त ही कोमल और भावुक मन लिये है। यह प्राकृतिक सौन्दर्य की एक ऐसी देवी है जिसे सर्वाधिक रूप में रंग-बिरंगे फूलों और उनकी सुगंधों से ही प्यार है इसलिए वह उन्हीं उन्हीं का श्रृंगार करती है और उन्हीं उन्हीं की तरोताजा सुगंधी में नहाती हुई सदा शुद्ध, पवित्र एवं खुशमिजाज बनी रहती है। यह हर संध्या को फूलती है और रातभर सब ओर अपनी खुशबू फैलाती हुई सूर्योदय के होते-होते अदृश्य हो जाती है। फिर संध्या को अपना अस्तित्व देती है। इस प्रकार यह पूरे पितृपक्ष में बनी रहकर कुमारिकाओं के व्रतानुष्ठान को धर्म-कला-कर्म से संयोजित करती है साथ ही उनकी मन की इच्छाओं को बनाये रखती है।


सांझी की बनावट व विभिन्न आयाम
पर्यावरण संस्कृति की दृष्टि से भी सांझी का महत्त्व कम नहीं है। गोबर-मिट्टी से घरों को सजाने की परम्परा के सूत्र हमें प्रागैतिहासिक काल से ही देखने को मिलते हैं -फूल, पत्ते. गोबर और आधार रूप में चौक बनाने के लिए जो गोबर मिश्रित पीली मिट्टी, गेरू अथवा हड़मची काम में ली जाती है वे सब शुद्ध पर्यावरण के पोषक हैं। इनसे प्रदूषित वातावरण शान्त होता है और जीवन को नई चेतना एवं स्फूर्ति मिलती है। गोबर अपने आप में एक पुराण है; गोबर से बनाई जाने वाली सांझियों में गोबर के गूग्गे-गोगे, गोबर के गोरधनजी, गोबर के नाग-नागिन, गोबर के संकरातडे, गोबर के होली माता के विविध आभूषण-बडूल्ले, छोरियों की गोबर की डेडकमाता, श्राद्धपक्ष के सांझी के गोबर परिकल्पन, भाईदूज के गोबर के दूज गणगौर-ईसर, अक्षय तृतीया पर गोबर के बने भूट्टे, गोबर-पीली की लीपाई आदि प्रमुख है।

राजस्थान में तिथि-तयोहारों पर बनाई जाने वाली हर एक सांझी अपना अलग रूप लिये होती है जिसमें भाद्र मास की पूर्णिमा (पाटलापूनम) से लेकर कार्तिक की सर्वपितृ अमावस तक मनाई जाने वाली यह सांझी समान रूप लिये नहीं है। राजस्थान में भी अलग-अलग अंचलों में यह भिन्न रूप लिये है, किंतु जो अंकन उभारे जाते हैं वे कुल मिलाकर समानधर्मी प्रभाव देते दिखाई देते हैं। सांझी की जो क्रमवार आकृतियाँ उभारी जाती हैं वे प्रतिदिन की तिथि से पूर्णतया मेल खाती हुई लगती हैं। उदाहरण के लिये पाटला पूनम के दिन बनने वाली सांझी भी इसी दिन की द्योतक है इस दिन पाँच हाथ, पांच पछेटे, पाँच फूल, एकम को बनने वाली सांझी एकी (एक) संख्या लिये होती है एक डोली, एक थाल, एक ढाल, एक तलवार, बीज को बनने वाली सांझी में बीरन बेटी, बीजणी, बछेरी, बीज का चंद्रमा,  तीज को बनने वाली सांझी में तीन तिबारी, चांद-सूरज-तारा, तराजू, त्रिशूल, चौथ को बनने वाली सांझी में चौपड़, चर-भर, चार रास्ते,  पांचम को बनने वाली सांझी में पाँच सिंघाड़े, पाँच फूल, पान-सुपारी, छठ को बनने वाली सांझी में छतरी, छाछ-बिलौना, छ: फूल, सातम को बनने वाली सांझी में सातिया, सात साधू, साल, खेजड़ी, आठम को बनने वाली सांझी में अठकली फूल, आम, अन्नपूर्णा, नवमी को बनने वाली सांझी में निसरणी, नगाड़े की जोड़ी, नौ डोकरी-डोकरे, नल-दमयंती, दसमी को बनने वाली सांझी में दस दीये, दशामाता, वान्दरवाळ, ग्यारस को बनने वाली सांझी में दो जनेऊ, गुल्ली-डंडा, दो डंका, झालर, राम, रावण व इसी प्रकार बारस को बनने वाली सांझी में कोट बनाया जाता है जो अमावस्या तक बना रहता है।


आज की सांझी व उसके चित्रकार
सांझी चित्रकला में परम्परा और आधुनिकता दोनों का सम्मिश्रण मिलता है। पहले प्रकृति बहुत नजदीक थी और मनुष्य का अधिकांश जीवन प्रकृति पर निर्भर था तब सांझी भी अधिक प्रकृतिमय होती थी और प्रकृति के विभिन्न उपादानों से ही अधिक श्रृंगारित की जाती थी किन्तु धीरे-धीरे जब मनुष्य ने प्रकृति से हटकर कई नई उ‌द्भावनाओं को जन्म दिया तो उसका प्रभाव सांझी चितरावण पर भी पड़ा इसीलिए सांझी के वर्तमान चित्रांकन में कांच, कपड़ा, लकड़ी, कोड़ी, कागज, सूखे रंग प्रयुक्त हुए मिलते हैं। जो कोट पहले गोबर से ही विभिन्न आकृतियों में चित्रित किया जाता था, उसके स्थान पर अब कागज की बनी आकृतियों का पाठा लाकर चिपका दिया जाता है। इससे सारे संझयाकोट एक जैसी पहचान लिये दिखाई देते हैं जबकि पहले संझया की विभिन्न आकृतियां तक अपनी विशिष्ट पहचान देती थी और उन्हें बनाने वाली बालिकाओं की सर्वत्र सराहना की जाती थी

 राजस्थान में ऐसी कुछ महिला चित्रकार भी अपनी समसामयिक चित्रकला की प्रयोगमूलक शैलियों में अपनी चित्र संरचना में सांझी की प्रयोगशीलता को आगे बढ़ाने में सहायक हैं। इन चित्रकारों पर राजस्थान के ग्रामीण परिवेश तथा कलात्मक वातावरण का बड़ा असर पड़ा। फलस्वरूप उन्होंने इस प्रभाव को अपने चित्रों में मुखरित किया। इनमें निमिषा शर्मा, वीरबाला भावसार, मीनाक्षी गुप्ता, मंजू मिश्रा तथा बसन्त कश्यप के नाम उल्लेखनीय हैं। निमिषा शर्मा प्रसिद्ध तीर्थस्थल नाथद्वारा के जाने माने चित्रकार इन्द्र शर्मा की पुत्री हैं। इन्होंने अपनी चित्रकला में गोबर को माध्यम बनाकर जो अभिनव प्रयोग किये उन्हें कलाजगत में बड़ी सराहना मिली। इनके पति चरण शर्मा भी अच्छे चित्रकार हैं। बम्बई में इस दम्पति ने अपनी चित्रकला की कुछ महत्त्वपूर्ण प्रदर्शनियां भी लगाई। बसन्त कश्यप भी इसी तरह प्रयोगधर्मी चित्रकार हैं जो अपने चित्रों के माध्यम से कई नयी सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति लिये हैं।

 

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