अवतारों के चरित्र का वर्णन, उन्हें रिझाने और गुणगान करने के लिए जो स्वरूप, नृत्य एवं गायकी प्रदर्शित की जाती है, उसे ‘लीला’ कहते हैं। इसका कथानक लोकजीवन में पूज्य अवतार अथवा विशिष्ट चरित्रों पर आधारित होता है। इस प्रदर्शन से उनके प्रति श्रद्धा प्रकट की जाती है। राजस्थानी लोकनाट्यों में लीला का खास महत्त्व रहा है। इनमें से रामलीला का मंचन लोगों की विशेष आस्था का केंद्र रहा है। रामलीला मंचन की शुरुआत रामचरित मानस के रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास ने की थी। उन्होंने काशी में अपने निर्देशन में रामलीला का मंचन करवाया था।
राजस्थान में रामलीला बड़े पैमाने पर मंचित की जाती है और यहां रामलीला के विविध रूप देखने को मिलते हैं। इनमें से बिसाऊ, पाटूंदा, भरतपुर तथा जुरहरा की रामलीलाएं अपनी विशिष्टताओं के लिए प्रसिद्ध रही हैं।
बिसाऊ की रामलीला
झुंझुनू जिले के कस्बे बिसाऊ में लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले रामाणा जोहड़े पर जमना नाम की सन्यासिन ने इस रामलीला का सूत्रपात किया था। बाद में इसका आयोजन गोगामेड़ी टीले पर होने लगा। वर्तमान में यह बिसाऊ के गढ़ के निकट मुख्य बाजार में आयोजित होती है जहां अयोध्या, पंचवटी और लंका के लिए मंच नियत हैं। पहले यह रामलीला आश्विन शुक्ला प्रतिपदा से शुरू होकर दशहरे तक मंचित होती थी किंतु इन वर्षों में शरदपूर्णिमा को समाप्त हो जाती है। इस रामलीला का सूत्रपात करने वाली जमना सन्यासिन छोटे-छोटे बच्चों के साथ खेल-तमाशे किया करती थी। धीरे-धीरे उसने राम-जीवन की छोटी लीलाएं शुरू की। उस समय के बिसाऊ ठाकुर बिशनसिंह जमना की इन लीलाओं से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने गांव के चौगान में इनका विधिवत आयोजन शुरू करवा दिया। यह राजस्थान की इकलौती रामलीला है जो शुरू से लेकर अंत तक मूकाभिनय के माध्यम से मंचित की जाती है।
बिसाऊ की रामलीला में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता को छोड़कर सभी पात्र अपने मुख पर मुखौटे धारण करते हैं। इन मुखौटों को यहीं तैयार किया जाता है। मुख्य पात्रों की पोशाकों को हर वर्ष नया बनाया जाता है। इस रामलीला में हनुमान की लाल, सुग्रीव की हरी, अंगद की पीली, दधिमुख की सफेद, जामवंत की कत्थई रंग की पोशाकें होती हैं। पात्रों के चेहरों को भी पोशाकों के अनुसार ही सजाया जाता है। राम-लक्ष्मण आदि के मुकुट और कुंडल चांदी से बने होते हैं।
असुर पात्रों के हाथ में तलवार, भाला, बरछी, कटार, बाण, ढाल आदि रहते हैं। नल, नील आदि वानरों के पास गदा और राम-लक्ष्मण के पास धनुष-बाण होता है। कुंभकरण, मेघनाद, रावण और उसके पुत्र के पुतलों को जलाया जाता है। इन पुतलों को विभीषण अग्नि देता है। ये पुतले कागज और बांस की सहायता से बीस फुट तक की ऊंचाई तक बनाए जाते हैं। इनमें बारूद, पटाखे और घास-फूस भरकर अग्नि दी जाती है।
इस रामलीला में राम-लक्ष्मण और सीता आदि स्वरूपों के पात्र केवल ब्राह्मण ही बन सकते हैं। शेष पात्र किसी भी जाति के हो सकते हैं। वाद्यों में ढोल, झांझ, भेर तथा उरवी बजाई जाती है। इस लीला में प्रतिदिन शाम को पांच बजे से लेकर सात बजे तक तुलसीकृत रामचरित मानस की चौपाइयां बोली जाती हैं। इन्हीं के आधार पर पात्र अभिनय करते हैं।
पाटूंदा की रामलीला
हाड़ौती के पाटूंदा कस्बे की रामलीला भी काफी प्रसिद्ध है। इसका सूत्रपात लगभग डेढ़ सौ वर्षों पूर्व गणपतलाल गुरु, अमरलाल और चतुर्भुज पुरोहित ने किया था। यह रामलीला हाड़ौती बोली में मंचित होती है। यह चैत्र सुदी पंचमी से शुरू होकर वैसाख वदी तृतीया तक चलती है। इस रामलीला का आरंभ करने से पहले गणेशजी की सवारी निकाली जाती है और उन्हें निमंत्रित किया जाता है। अष्टमी को राम विवाह की वर निकासी निकलती है। इसमें जकड़ी-भजन गाए जाते हैं। दशमी को रावणवध का आयोजन होता है। इसी दिन भैरव भवानी के स्वांग भी मंचित किए जाते हैं। तदुपरांत राम, लक्ष्मण और सीता की सवारी हाथी-घोड़ों पर भव्य तरीके से निकाली जाती है।
इस लीला में वाद्य के रूप में चिकारा, कमायचा, सारंगी, ढोलक तथा मंजीरे बजाए जाते हैं। पद्यों की टेर लगाने के लिए आठ से दस लोगों का समूह होता है। पात्र अपने संवाद के हिस्से का अंश खुद ही बोलते हैं। रामलीला से पहले यहां ‘समया’ आयोजित होता है जिसमें तीन दिनों तक धनुषयज्ञ का दृश्य दिखाया जाता है।
भरतपुर की रामलीला
भरतपुर में सन 1905 से यह रामलीला मंचित होती रही है। इस लीला का आधार गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस रहा है। मानस के सभी नाटकीय पदों को दृश्यानुसार लिखकर एक पुस्तक का निर्माण किया गया है जिसके आधार पर यह लीला मंचित की जाती है। इसके पात्रों को महिने भर अभ्यास करवाया जाता है। उनको चौपाइयां रटाई जाती हैं और सभी अंशों को नाटकीय तरीके से प्रस्तुत करने पर बल दिया जाता है। इस रामलीला के पात्रों की वेशभूषा रामायणकालीन तरीके से बनी होती हैं। इस लीला में वाद्य आदि का प्रयोग नहीं होता और नृत्य भी नहीं किया जाता। इसमें अभिनेता अपनी गायकी के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करता है। संवादात्मक चौपाइयों को उसी तरीके से अभिनीत किया जाता है। उदाहरणस्वरूप अंगद-रावण संवाद की चौपाई – ‘कह दश कंठ कवन तैं बंदर, मैं रघुवीर दूत दश कंदर’ में दश कंठ भाग जैसे ही अभिनेता गाकर पूरा करता है तो वैसे ही रावण उसी लय में ‘कवन तैं बंदर’ पंक्ति पूरी करता है। शेष भाग रावण के बाद अंगद बोलता है। यही क्रम पूरी लीला में चलता है। प्रस्तुति को जीवंत और सहज बनाने के लिए अभिनेता देश, पीलू, सोहनी और वीरता व्यंजक ओजस्वी ध्वनि वाली राग-रागिनियों में दोहा-चौपाई बोलता है।
इस रामलीला में दर्शकों को घटना, स्थल, पात्र और पोशाक आदि दृष्टि से साक्षात रामायणकालीन संस्कृति की अनुभूति कराई जाती है। जीवंत मंचन से दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता है, मानों वे सारी घटनाओं को प्रत्यक्ष देख रहे हैं। लीला का मंच कुशल कारीगरों द्वारा बांस-बल्लियों और लताओं से बनाया जाता है। राजदरबार के लिए भव्य और विशाल भवन का मंच तैयार किया जाता है। चित्रकूट के लिए तिदरी और पंचवटी के लिए पंचवृक्षी पंचदरी बनाई जाती है। इस लीला का मंचन दशहरे से बारह-तेरह दिनों पहले शुरू होकर दशहरे के दिन रावण-वध और अगले दिन राम के राज्याभिषेक से सम्पन्न होता है।
रामलीला के प्रदर्शन के साथ-साथ राम-विवाह, भरत-मिलाप तथा राम के अयोध्या लौटने के बाद उल्लास में सजे-धजे रथों की सवारियों का भी आयोजन किया जाता है। यह यात्रा नगर के प्रमुख मार्गों से होकर निकलती है जिसका भव्य स्वागत किया जाता है। विदाई के समय लोग रामलीला के अभिनेताओं को आर्थिक सहयोग देकर प्रोत्साहित करते हैं।
जुरहरा की रामलीला
भरतपुर जिले की कामां तहसील के कस्बे जुरहरा में यह रामलीला मंचित की जाती है जिसमें मेवाती और ब्रज भाषा मिश्रित संवाद बोले जाते हैं। यहां लगभग सवा सौ वर्षों से रामलीला आयोजित होती रही है। इस रामलीला के सूत्रधार पंडित शोभाराम थे। यहां की लीला में तुलसी रचित रामचरित मानस के अलावा कवि केशव की रामचंद्रिका, राधेश्याम कथावाचक की रामायण और स्थानीय कवियों की लिखी लावणियों का भी सहारा लिया जाता है।
शुरुआत में यह लीला आश्विन कृष्णा एकादशी से आरंभ होकर महिने भर चलती थी पर आजकल यह 17 दिनों में पूरी कर ली जाती है। इन 17 दिनों में 14 दिन रात्रि को और 3 दिन दिन में मंचित होती है। दिन की लीला में मंचित होने वाले मुख्य प्रसंगों में केवट-संवाद, लंका-दहन और रावण-वध हैं। इस लीला में आजकल वाद्यों के रूप में हारमोनियम, सारंगी, नगाड़े आदि प्रयुक्त होते हैं। इसमें मुख्य स्वरूप पात्रों की भूमिका ब्राह्मण जाति के लोग निभाते हैं। इसके पांचों प्रमुख पात्रों राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता की भूमिकाएं तेरह वर्ष से छोटी आयु के लड़के निभाते हैं। इनका बेहद सम्मान रखा जाता है।
जुरहरा की रामलीला मुख्यत: जुलूस अथवा सवारी प्रधान है। इनमें राम-विवाह की सवारी, लंका-दहन की सवारी, रावण-वध की सवारी और राम के अयोध्या लौटने की सवारी मुख्य हैं। लोग इन सवारियों का भव्य स्वागत करते हैं। पहले यह सवारी हाथी पर निकलती थी, फिर घोड़ों और आजकल ट्रेक्टरों पर निकलने लगी है। राम के विवाह की सवारी के पांचों स्वरूप मेहंदी लगाए होते हैं। मंच पर जनकपुरी का दृश्य होता है। इसमें विवाह के रिवाजों के साथ प्रहसन भी मंचित किया जाता है।
इस लीला में राम के वन-गमन का प्रसंग बड़े ही मार्मिक तरीके से मंचित किया जाता है। वनवासी बनने से पहले राम-सीता और लक्ष्मण पूरे कस्बे की गलियों में पैदल घूमते हैं। यह दृश्य देखकर सभी लोग भाव-विभोर हो उठते हैं। अंत में वे तीनों नदी के किनारे पहुंचते हैं, जहां नाविक केवट उन्हें नाव में सवार नहीं होने देता। वे जैसे-तैसे नदी पार करते हैं।
जुरहरा की रामलीला में प्रसंगों के मंचन के स्थान अलग-अलग होते हैं। इन जगहों पर बड़े उत्साह के साथ मंच वगैरह की सज्जा की जाती है। रामलीला के कलाकारों को जनसहयोग से आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाता है।
इस रामलीला में सवारी एवं जुलूस का खास महत्त्व है। इसके मुख्य पात्र राम, लक्ष्मण, सीता आदि स्वरूपों का खूब शृंगार किया जाता है। भक्ति-भाव से सरोबार इस रामलीला के कलाकार और दर्शक धूम्रपान व मद्यपान से दूर रहते हैं। कोई भी दर्शक और कलाकार किसी उच्चासन यथा कुर्सी या स्टूल आदि पर नहीं बैठता। जुरहरा की रामलीला बेहद अनुशासित है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि रामलीला के मंचन से जनजीवन की धार्मिक आस्थाओं को संबल मिलता है। लीला का प्रदर्शन दर्शक और प्रदर्शक में आनंद की अनुभूति करवाता है। प्रभुता का यह प्रवाह लोकजीवन की समस्त कुंठाओं, कालिमाओं और नैराश्य को दूर करके जीवन का तनाव समाप्त करता है। रामलीलाओं के पीछे जनता की अपार श्रद्धा, भक्ति और भावना निहित रहती है।