राजस्थान में अनेक आदिवासी समुदाय निवास करतें आए हैं। इन समुदायों में सबसे प्रमुख जनजातियां भील एवं मीणा हैं। इसके अलावा राजस्थान में गरसिया और सहरिया जनजातियाँ भी यहाँ मिलती हैं। यहां इन जनजातियों का परिचयात्मक विवरण प्रस्तुत है–

 

भील (Bhil)

 

निवास-क्षेत्र : भील जनजाति राजस्थान के उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चितोड़गढ़ आदि जिलों में मुख्यतया निवास करती है। यह जनजाति अपनी उत्पति को भगवान शिव से मानती है। भील शब्द ‘बील’ से बना है जिसका अर्थ ‘धनुष’ होता है। आज भी भील तीर-कमान धारण करते हैं। कुछेक इतिहासकारों के अनुसार भील समुदाय के अनेक शासकों का किसी समय में इस क्षेत्र में शासन भी रहा था। मेवाड़ तथा वागड़ क्षेत्र में राजपरिवारों में इस समुदाय का आदर रहा है और उन्हें शासक का राजतिलक करने के अधिकार के साथ राज्य द्वारा काफी छूट प्राप्त थी।

 

भील जाति के लोग पहाड़ों की ढालों, चोटियों, घाटियों तथा बेसिनों के क्षेत्रों में निवास करतें है। इनकी बस्तियों को ‘फाला’ तथा मकानों को ‘टापरा’ कहा जाता है। एक फाल में एक ही गौत्र के लोग रहतें हैं। फालों का समूह गांव और गावों का समूह ‘पाल’ कहा जाता है।

 

भोजन और पहनावा : भील जाति के लोगों का मुख्य भोजन मक्के की रोटी, खिचड़ी आदि होता है। इनके अधिकतर पकवान भी मक्के से बने होते हैं। भील पुरुष अमूमन लंगोटी पहने रखतें हैं। त्योहारों आदि के अवसर पर धोती और अंगरखा पहनतें हैं। भील महिलायें घुमेरदार लहंगा, कंचुकी, ओढ़नी एवं सिर पर गूँथे हुए बाल रखती हैं। कलाई में सफेद रंग की चूड़ियाँ पहनती हैं।

 

भाषा : राजस्थान के वागड़ अंचल में रहने वाले भील ‘वागड़ी’ (भीली) और मेवाड़ के भील मेवाड़ी बोली बोलते हैं। इस बोली पर गुजराती का भी असर है।

 

परिवार और समाज : भीलों में पितृसतात्मक परिवार होतें हैं। भील लोगों में कई गौत्र जैसे परमार, कटारा, अहाड़ी, भगोरा, धनट, सोलंकी, सिसोदिया, चौहान, राठौड़, राणा, लाटा, कलसूआ आदि हैं। भीलों में प्रत्येक गांव का एक मुखिया होता है जिसे पटेल या गमेती कहा जाता है। भीलों के आपसी विवादों का निपटारा ‘गमेती’ द्वारा किया जाता है। इसके बाद दूसरा महत्वपूर्ण पद ‘भोपा’ या ‘देवाली’ का होता है जो देवी-देवताओं, जादू-टोना और झाड़-फूंक के कार्य करता है। तीसरा प्रमुख पद ‘भगत’ का होता है जो धार्मिक संस्कारों को सम्पन्न करवाता है।

 

विवाह : भीलों में विवाह संबंध गौत्र से बाहर होते हैं। एक ही ‘पाल’ में रहने वाले भीलों में विवाह संबंध नहीं होते हैं। भील जाति में ‘नाता’ प्रथा भी प्रचलित है। विवाह में पंडित की कोई जरूरत नहीं होती। वर-वधू के दाहिने हाथों को जुड़वाकर पानी के घड़े पर पीपल की पत्तियां रखकर दोनों से परिक्रमा करवाई जाती है। भीलों में ‘अपहरण-विवाह’ भी चलन में है। भीलों में देवर विवाह, विनिमय विवाह, सेवा विवाह और क्रय विवाह भी प्रचलित है।

 

त्यौहार : होली भीलों का प्रमुख त्यौहार है जो दस दिनों तक मनाया जाता है। इनका प्रमुख मेला ‘बेणेस्वर’ धाम में आयोजित होता है जहां भील समुदाय के लोग अपने पूर्वजों की अस्थियों का विसर्जन करने त्रिवेणी संगम पर पहुंचते हैं। यहां बड़ा मेला भरता है।

 

लोकप्रचलित परम्पराएं : भील समाज आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास करती है। इस समाज में प्रमुख देवताओं के रूप में इंद्रराज, बागदेव, बाराबीज, गोराजी, कालाजी, गोपालदेव, मारिया माता, भैरूँजी आदि पूजे जातें हैं। डायन, भूत-प्रेत आदि के बारे में भी इस समाज में धारणा रही है जिससे रक्षा हेतु ये ताबीज आदि धारण करते हैं। मेवाड़ क्षेत्र के भील केसरियाजी को अपने आराध्य देव के रूप में पूजते हैं। ये समाज किसी की मृत्यु होने पर उसे जलाता है। भील समाज का गवरी लोकनाट्य बेहद लोकप्रिय है जो चालीस दिनों तक चलता है।

 

अर्थव्यवस्था और जीवन स्तर : भील जाति की आजीविका का मुख्य आधार खेती, आखेट और वन्य-उत्पाद रहे हैं। खेती के अलावा ये लोग जड़ी-बूँटियों, लकड़ी, शहद, गोंद, कत्था आदि को बेचकर अपना गुजारा चलातें हैं। आजकल इस जाति के लोग मजदूरी भी करने लगे हैं। शिक्षा का इस समाज में अब भी कम चलन है जिसके कारण सामाजिक परिवर्तन काफी धीरे आ रहा है।

 

मीणा जनजाति

 

मीणा जनजाति राजस्थान की प्रभावी जनजाति है। इतिहास में इस समुदाय के शासक भी रहे हैं। इस समाज की उत्पति के बारे में मान्यता है कि यह एक ऐतिहासिक जनजाति रही है। यजुर्वेद में अन्याय, जुल्म और पापों से रक्षा करने वाले वीरों को ‘मेनाल’ कहा गया है। ‘मीन पुराण’ में इस जाति का उद्भव मत्स्य अवतार से माना गया है जो मीणाओं के आदिपुरुष के रूप में माने जाते हैं। कुछेक इतिहासकर मीणा जाति का इन्हें राजपूतों से जोड़ते हैं। इनके गौत्र चोहाण में बागड़ोती, गोठवाल, चीता, राठोड़, आगरवाल, सारंगवाल, सारंगवाल, जागरवाल आदि हैं। मीणा जाति 12 पालों, 32 तडों और 520 गौत्रो में बंटी हुई है।

 

बसाव क्षेत्र : इस जनजाति की ज्यादातर बसावट राजस्थान के करौली, सवाई माधोपुर, दौसा, जयपुर, अलवर, भरतपुर, उदयपुर, टोंक, चितौड़गढ़, सीकर और बूंदी जिलों में मिलती हैं। पहले इस समाज के लोग जमींदार मीणा और चौकीदार मीणा में बांटे जाते थे पर आजकल यह भेद मिट गया है।

 

भोजन एवं पहनावा :  मीणा लोगों का सामान्य भोजन मक्का, ज्वार, गेहूं, जौ की रोटी, छाछ, दूध, दही, बाजरे की खिचड़ी, राबड़ी आदि है। मिर्च का खूब प्रयोग इनके खाने में होता है। मीणा पुरुषों के वस्त्र साधारण होते हैं। सिर पर पगड़ी, साफा, अंगरखा, घुटनों तक की धोती, तीन लांग की धोती मुख्य पहनावा है। पैरों में जूतियां पहनते हैं। स्त्रियाँ चांदी के आभूषण कड़ियां पैरों में, करधनी कमर में, राखड़ी सिर पर, बाजूबंद हाथों में और लाख एवं हाथीदांत की चूड़ियां पहनती हैं। घेरदार घुमावदार लहंगा, कंचुकी, छोटी सी औढनी औरतें धारण करती हैं। मीणा औरतों में गोदना उकरवाने का खास चलन है। 
परिवार एवं विवाह : मीणा जाति में संयुक्त एवं एकल दोनों परिवार मिलते हैं। मीणा अपना गौत्र छोड़कर विवाह करते हैं। नाता प्रथा भी इस समाज में प्रचलित है।

 

धार्मिक मान्यताएं : मीणा जाति में शक्ति पूजा का प्रचलन है। करौली में कैलादेवी, जयपुर में शीतला माता, सवाई माधोपुर में चौथमाता को पूजा जाता है। मेलों आदि के अवसर पर लांगुरिया नृत्य और दंगल का आयोजन होता है।

 

सामाजिक जीवन : मीणा समाज जातीय एकता से काफी मजबूत है और इनकी पंचायत अनेक मामलों का निपटारा कर देती है। आजकल शिक्षा की दृष्टि से यह जाति काफी उन्नति कर चुकी है और अनेक लोग उच्च सेवाओं में कार्यरत हैं। इसके प्रभाव से इनकी आर्थिक हालातों में सुधार हुआ है।

 

गरासिया जनजाति

 

गरासिया जनजाति राजस्थान की तीसरी बड़ी जनजाति है जो कुल जनसंख्या का लगभग सात प्रतिशत है। इस जनजाति की बसावट दक्षिणी राजस्थान में अधिक है। गरासिया राज्य के उदयपुर, राजसमंद, झालावाड़, कोटा, सिरोही और बाराँ जिलों में बसे हुए हैं। इस जाति का उद्भव चौहान और अन्य राजपूतों से माना जाता है।

 

भोजन और पहनावा : गरासिया लोगों का मुख्य भोजन मक्का, गेहूं, जौ और चना आदि है। पुरुष धोती, कुरता, अंगरखी पहनते हैं। महिलाएं घाघरा आदि धारण करती हैं।

 

सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन : गरासिया समाज में पित्रसत्तात्मक परिवार होते हैं। इनके गांवों में पंचायत बनी होती है जो ‘पालवी’ कही जाती है। इसके माध्यम से आपसी विवाद निपटाए जाते हैं।

 

विवाह : गरासिया समाज में विवाह के तीन प्रकार प्रचलित हैं – मोर बंधिया, पहरावना, तन्ना। मोरबंध विवाह में अग्नि को साक्षी मानकर दूल्हा-दुल्हन फेरे लेते हैं। पहरावना विवाह में फेरे आदि नहीं होते हैं। तन्ना विवाह में दूल्हे के परिवार द्वारा दुल्हन के परिवार को धन देकर विवाह किया जाता है। पुनर्विवाह, विधवा विवाह, नाता प्रथा आदि भी इस समाज में प्रचलित है।

 

मान्यताएं और विश्वास : गरासिया लोग ‘शिव’ के उपासक हैं। ये जादू-टोना, जंतर-मंतर में काफी भरोसा करते हैं। इनमें प्रत्येक सफेद पशु गाय, बकरी, घोडा, भेड़ आदि को पवित्र मानते हैं। मृत शरीर को जलाया जाता है।

 

त्यौहार : गरासिया समाज में होली और गणगौर त्यौहार बड़े उत्साह से मनाया जाता है। इस समाज में ‘गरबा’ नृत्य, ‘वालर’ नृत्य और ‘गैर’ नृत्य काफी लोकप्रिय हैं।

 

आजीविका : गरासिया जनजाति के लोगों की आजीविका खेती और पशुपालन पर आधारित है। शिक्षा का इस समाज में अधिक प्रचार नहीं है जिसके कारण ये लोग सरकारी नौकरियों में नहीं आ सके हैं।

 

सहरिया जनजाति

 

राजस्थान में सहरिया जनजाति के लोग बारां जिले में निवास करते हैं। इनके गौत्र चौहान, देवड़ा, सोलंकी, बुन्देल आदि राजपूतों से मिलते-जुलते हैं।

 

भोजन एवं वस्त्र : इनका प्रमुख भोजन ज्वार, मक्का, जौ और बाजरे से बनी रोटी तथा पुवार सब्जी है। सहरिया पुरुष धोती, अंगरखा एवं कमीज पहनते हैं। औरतें घाघरा, लुगड़ी और लंबी बांह का कुरता पहनती हैं। चांदी के कड़े और हाथीदांत की चूड़ियां पहनती हैं। ये शरीर पर नाम और देवी-देवताओं की मूर्तियां भी गुदवाते हैं।

 

सामाजिक जीवन : सहरिया लोग मजबूत, सुंदर और हष्ट-पुष्ट होते हैं। ये लोग समूह में निवास करते हैं। इनके घर बांस की खपछियों, बांस और घास की छत से बने होते हैं।  इनके घरों के समूह को ‘शहरोल’ और गाँव को ‘सहराना’ कहा जाता है। सहरिया जाति में प्रमुख को ‘कोतवाल’ कहा जाता है। वह इनके आपसी विवादों का निपटारा करता है।

 

विवाह : सहरिया जनजाति में खुद की गौत्र में विवाह करने पर रोक है। इनके विवाह से जुड़े सभी संस्कार इसी जाति का पंच सम्पन्न करवाता है।

 

त्यौहार : सहरिया लोग श्रावण, नवरात्रा, दीवाली, होली आदि त्यौहार बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं। इनका ‘सहरिया’ नृत्य बड़ा प्रसिद्ध है जिसमें ये शरीर पर रंग-बिरंगी खड़िया लगाकर लचकदार नृत्य करते हैं। बारां के सीताबाड़ी में लगने वाला मेल इस जाति के लिए काफी पवित्र है। सहरिया समुदाय ऋषि बाल्मीकि को अपना कुलदेवता मानते हैं।

 

आजीविका : सहरिया जाति के लोगों की आजीविका कृषि और पशुपालन से चलती है। इसके अलावा ये लोग मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते हैं। यह समुदाय आर्थिक रूप से काफी पिछड़ा हुआ है।

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