पगड़ी और साफे

 

राजस्थान में पुरुष पगड़ी, साफा या पोतिया ये साफे जाति और क्षेत्रानुसार भिन्न-भिन्न तरीकों से बांधे जाते हैं। यहां के जोधपुरी साफे एवं उदयपुरी पगड़ी की विशिष्ट पहचान है। रियासती दौर में जोधपुर राजवंश में खिड़किया पाग का खास चलन रहा था। यहां विजयशाही, अमरशाही, उदयशाही, मानशाही और गजशाही आदि राजाओं के नाम से पगड़ी का प्रचलन रहा है। पगड़ियां प्राय: शिखराकार एवं आगे को उठी होती है। उच्चवर्ग की पगड़ियां स्वर्ण कलंगी से सुशोभित रहती थी। पगड़ी पर लगे सिरपेच और कलंगी पर कीमती हीरा-पन्ना संपन्नता को इंगित करता था। पगड़ी तथा पेचा को सोने और चांदी के तारों से सुसज्जित किया जाता था। इन तारों से सिरपेच, तुर्रा बालाबंदी, लटकन बनाकर पाग पर लगाई जाती थी। हाड़ौती और उदयपुर में साफा पेचों की पगड़ी होती है। जयपुर की पगड़ियों में बलदार लपेटे होते हैं। पगड़ी प्राय: अठारह गज लंबी और नौ इंच चौड़ी होती है। सिर पर पगड़ी के स्थान पर साफा या फेंटा भी बांधा जाता रहा है। पुराने समय में नंगे सिर रहना अपशकुन माना जाता था। रियासती दौर में महलों और रावलों में नंगे सिर प्रवेश करना निषेध था। पगड़ी के ऊपर से लांघना, ठोकर मारना या नीचे रखना अपमानजनक माना जाता है।

 

वर्षा ऋतु, शीतकाल और गर्मियों में विविध रंगों के साफे बांधे जाते रहे हैं। इन रंगों में गहरा हरा, कसुंबी तथा कुंकुम आदि रंग प्रमुख हैं। तीज के दिन बहुरंगी लहरिया साफा एवं दशहरे की सवारी के समय सोने के धागों से बने फूल पत्ती वाला साफा, होली के पर्व पर सफेद और पीले रंग का पेचा बांधा जाता है। ग्रामीण परिवेश की सभी वर्गों में साफे का चलन ज्यों का त्यों है। मारवाड़ क्षेत्र में साफों और मेवाड़ में पगड़ियों का अधिक चलन है। खेतीहर एवं पशुपालक जातियों में अपनी परंपरागत पगड़ियों से विशेष लगाव रखते हैं। राजपूत, वणिक और ब्राह्मण जातियों में सफेद साफा पिता की मृत्यु के बाद ही बांधा जाता है। खेतीहार जातियों जाट और बिश्नोईयों में सफेद साफा सामान्य रूप से बांधा जाता है।

 

अधोवस्त्र

 

पुरुषों द्वारा तन पर जामा, वागा, अंगरखी पहनने का रिवाज है। अंगरखी को बुगतरी भी कहा जाता है। घुटनों तक धोती पहनी जाती है। ठंड से बचने के लिए कंबल और कपड़े का पछेवड़ा काम में लिया जाता है। पुरुषों के मुख्य वस्त्र इस प्रकार हैं–

 

अंगरखी

 

इसे ग्रामीण क्षेत्र में बुगतरी कहा जाता है। यह अमूमन सफेद रंग का कुर्तानुमा वस्त्र होता है जो शरीर के ऊपरी भाग पर पहनी जाती थी। गले, कंधे व पीठ पर कढ़ाई युक्त अंगरखी को फर्रूखशाही अंगरखी कहा जाता है। अंगरखी का परिष्कृत रूप राजस्थानी अचकन होता है।

 

चुगा या चोगा

 

अंगरखी के ऊपर पहना जाने वाला वस्त्र जिसे प्राय: अमीर लोग ही पहनते हैं। चोगा विशेष अवसरों पर ही पहना जाता रहा है।

 

आत्मसुख

 

तेज ठंड से बचाव के लिए अंगरखी व चोगा के ऊपर लोग आत्मसुख वस्त्र पहनते हैं। यह बड़ा और रोयेंदार होता है।

 

जामा

 

विवाह और पुराने जमाने में युद्ध के समय जामा पहनने का रिवाज था। इसका घेर घुटनों तक आता था।

 

पटका

 

यह जामा या अंगरखी के ऊपर पटका बांधा जाता था। इसे कमरबंद भी कहा जाता था। इसमें तलवार और कटार घुसी रहती थी।

 

पछेवड़े और घुंघी

 

सर्दियों में खेतों में काम करते समय किसान अपने शरीर पर एक कंबल इस प्रकार बांधते हैं जिससे काम में बाधा भी नहीं आती है। इस प्रकार सिर पर ओढ़ने वाले कंबल को घुंघी कहा जाता है। शीतऋतु में राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष ओढ़ने के लिए पट्टु, कंबल, दोवड़, बरड़ी आदि ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते हैं। इन वस्त्रों में आकार-प्रकार तथा बनावट के आधार पर अलग-अलग नाम हैं। ऊंट के बालों और सूत के मिश्रण से बना कंबल ‘भाखला’ भी काफी चलन में रहा है।

 

जूतियां

 

पुरुषों द्वारा पैरों में जूतियां और महिलाओं द्वारा पगरखियां धारण करने का रिवाज है जो चमड़े से बनी होती हैं। इन पर मखमल का कपड़ा लगाने, फूलपत्ती उकेरने और सितारों से सजावट की जाती है। जोधपुर, जयपुर और कोटा की जूतियां विशेष चर्चित हैं।

 

आभूषण

 

पुरुषों में भी आभूषणों का प्रचलन रहा है। गले में कांठला, कान में मोती और अंगुलियों में अंगूठी पहनने की परंपरा रही है। धनी वर्ग के पुरुष हाथों में कड़े, भुजबंध, गले में हार, कानों में कुंडल, अंगुलियों में अंगूठी और कमर में करधनी पहनते थे। साधारण वर्ग के लोग प्राय: चांदी या पीतल के आभूषणों का प्रयोग उत्सव आदि पर करते हैं। कानों को बिंधवाकर उनमें मुरकियां पहनने का चलन भी है।

जुड़्योड़ा विसै