प्रकृति और बाह्य-जगत के साथ सम्बन्ध रखने से हो जीवित रहना संभव है। और वस्तु-जगत के साथ यह सम्बन्ध केवल मेहनत के ही माध्यम से सम्पन्न हो पाता है। मेहनत करने के लिए जिस प्रकार जिन्दगी आवश्यक है, उसी प्रकार जिन्दा रहने के लिए मेहनत आवश्यक है। जिन्दगी का दूसरा नाम मेहनत है। मेहनत का दूसरा नाम जिन्दगी है। प्रकृति के बाद इस दुनिया में, सबसे महत्वपूर्ण वस्तु मनुष्य की अपनी मेहनत ही है। प्रकृति के बाद, इस दुनिया में, सबसे सुन्दरतम वस्तु भी मनुष्य की अपनी मेहनत ही है। मानवीय श्रम से बढ़ कर कोई दूसरी कला नहीं। कोई दूसरा विज्ञान नहीं। क्योंकि सभी कलाओं के सृजनहार, सभी ज्ञान-विज्ञानों के निर्माणकर्त्ता स्वयं मनुष्य का जन्म भी मेहनत की कोख से हुआ है, नारी की कोख से नहीं।

बाह्य-जीवन या प्रकृति को बदलने का कार्य केवल ‘कामना’ से पूरा नहीं होता। उसके लिए शारीरिक श्रम वांछनीय है। और प्रकृति को बदलने के लिए, प्रकृति के स्वभाव को जानना जरूरी है, उसके नियमों तथा गुणों को जानना जरूरी है। प्रकृति के साथ संघर्ष करते समय, मेहनत के दौरान में उसके स्वभाव की जानकारी मनुष्य को होती रहती है। उसे प्राकृतिक नियम-कानूनों की अभिज्ञता हासिल होती रहती है। नियमों की जानकारी के बाद, तदनुरूप वैसी ही मेहनत अपेक्षित हो जाती है। और उस मेहनत की क्रिया-शीलता के क्रम में नये-नये नियमों का अनुसन्धान होता रहता है। यही मानवीय-श्रम और विज्ञान का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। विज्ञान नये-नये कार्यों की सृष्टि करता है। नये कार्यों से, नये नियमों का पता लगता रहता है। यह पारस्परिक क्रम, मनुष्य को विकास के पथ पर आगे बढ़ाता रहता है। मनुष्य पशु से इसी जगह भिन्न है कि वह जिन्दा रहने के साधन स्वयं जुटाता है। पशु सम्पूर्ण रूप से प्रकृति पर आश्रित है। भौतिक जीवन की इन साधन-सुविधाओं को जुटाने के लिए शारीरिक अंग-संचालन द्वारा परिश्रम अनिवार्य है। और इस मानवीय श्रम की एक विशेषता यह है कि वह शारीरिक इन्द्रियों ही के भरोसे नहीं है। केवल प्रकृति द्वारा दी हुई शरीर की ताकत ही का वह मुहताज नहीं है। वह औजारों को प्रयोग में लाता है। औजारों का प्रयोग ही मनुष्य की अपनी वास्तविक मेहनत है। औजारों को थाम सकने वाली इसी मेहनत के कारण मनुष्य वस्तु-जगत को बदलता है और उसके साथ स्वयं भी अपने-आपको बदलता रहता है। विकसित होता रहता है। अन्य पशु-पक्षियों के कार्य-कलापों में और मनुष्य की मेहनत में यही सबसे बड़ा अन्तर है कि मनुष्य अपने परिश्रम से बाह्य-जगत में परिवर्तन लाता है और अन्य जीवधारी प्राणी अपने अंग-संचालन से प्रकृति को बदलने में लगभग असमर्थ ही रहते हैं। वे अपने अस्तित्व ही से जो स्वयं प्रकृति की देन है केवल अकिंचित् परिवर्तन कर पाते हैं; मानवीय-श्रम की तुलना में जो सर्वथा नगण्य ठहरता है। मनुष्य अपनी इच्छा से, अपने ध्येय के मुताबिक, अपनी पूर्व-निर्मित योजना के अनुसार प्रकृति में सप्रयत्न परिवर्तन करता है। मनुष्य को अपने कार्यों के प्रति चेतना है कि वह क्या कर रहा है? क्यों कर रहा है? पशु अपनी चेतना के बावजूद ही सब काम करता है। उसकी कार्य-चेष्टाएँ केवल संयोग-मात्र हैं। पशु की प्रकृति-गत विवशता जहाँ समाप्त होती है, वहीं से मनुष्य की स्वनिर्मित समाजगत-स्वतंत्रता आरम्भ होती है। पशु प्रकृति का गुलाम है। मनुष्य अपनी चेतना का आप मोलिक है। इसलिए मनुष्य की काम करने की सामाजिक विधि को ही मेहनत के नाम से सम्बोधित किया जा सकता है। हरिणों की तेज दौड़, घोड़ों की अथक शक्ति, मकड़ियों का बड़ी बारीकी सफाई से जाला बुनना, चिड़ियों का एक-एक तिनका चुग कर घोंसला बनाना, हाथियों की बेमिसाल ताकत, सिंहों की शिकार करने की हिंसक शक्ति आदि ये सब उनके प्रकृति-गत स्वभाव हैं— उनकी मेहनत नहीं। मेहनत केवल मनुष्य करना जानता है। मेहनत मनुष्य की अपनी विशेषता है।

वह मेहनत ही थी जिसने मनुष्य का निर्माण किया। और आज दिन भी वह मेहनत ही है कि जिसके बिना मनुष्य का काम नहीं चल सकता। उसके सारे सामाजिक कार्य-व्यापार मेहनत के माध्यम से ही आरम्भ होते हैं और अंत तक मेहनत के माध्यम से ही समाप्त हो पाते हैं। मेहनत की वास्तविक क्रियाशीलता के कारण ही उसकी शक्तियों का विकास हुआ था, विकास हो रहा है और चिरकाल तक उसका विकास होता रहेगा। मेहनत ही की कोई सीमा है और मनुष्य की सामाजिक शक्तियों के विकास का कोई अन्त ही। दोनों ही असीम हैं। दोनों ही अनन्त हैं।

मेहनत ने मानव-शिशु को केवल जन्म देकर ही उसे उसके भरोसे छोड़ नहीं दिया। उसे कभी भी अपने उत्तरदायित्वों से परे नहीं किया। बिना माँगे, जरूरत पड़ने पर उसने अपने पुत्र के मन की बातों को, उसकी रुकावटों को, उसके अभावों को, उसकी कठिनाइयों को समझा है और समझने के साथ ही निविलम्ब उसकी आवश्यकता को पूरा किया है। उसे पशु से मनुष्य बनाया और मनुष्य बना देने के बाद परिवर्तितकर्ता और परिस्थितियों के बीच नई कठिनाइयाँ उपस्थित हुई तो उसने उन कठिनाइयों को भी दूर किया। उसने मनुष्य के हाथों को सम्पन्न और शक्तिशाली बनाया, उसे समूह में रहने की प्रेरणा दी। जरूरत पड़ने पर उसने मनुष्य के गले को वाणी से मुखरित किया। जरूरत पड़ी उसे सभी प्रकार की कलाओं से मंडित किया। उसे विज्ञान की समृद्धता प्रदान की। उसकी बाणी को लिपि का रूप दिया। मनुष्य की जरूरतें बढ़ती ही गई और मेहनत ने उसकी हर जरूरत को पूरा किया। वह उसकी जरूरतों को आज दिन भी पूरा कर रही है और भविष्य में चिरकाल तक करती रहेगी।

अन्य सभी जरूरतों की तरह कविता भी मनुष्य की ‘जरूरत’ के समाधान ही के फलस्वरूप उत्पन्न हुई थी। आदिम-मानव की सामूहिक आवश्यकता तथा उसकी सामूहिक प्रतिभा को व्यक्त करने के लिए कविता ही एक मात्र माध्यम थी। श्रम की तालों के बीच कविता ने अपना जन्म ग्रहण किया था। और तत्पश्चात् श्रम को सहज, सुन्दर और मधुर बनाया था। तब श्रम को कविता से अलग किया जा सकता था और कविता को श्रम से। श्रम कविता की विषय-वस्तु था और कविता श्रम का रूप। समूह की भावना, उसकी आशा-आकांक्षा, उसके हर्षोल्लास को समा सकने की ताकत, जितनी कविता में है, उतनी किसी भी अन्य साहित्य के उपकरण में नहीं; क्योंकि कविता सामूहिक औसत भावनाओं ही का परिणाम है।

खेती-सम्बन्धी सामूहिक आयोजनों में काम की निमग्नता के बीच, सामूहिक ध्वनियों को राजस्थानी में ‘भणतें’ कहा जाता है। सामूहिक आयोजनों की वास्तविक क्रियाशीलता के बीच से निकाल कर यदि इन ‘भणतों’ को लिखित पंक्तियों के रूप में, अलग से देखने-समझने की चेष्टा करें तो सत्य के साथ मखौल उड़ाना होगा। आयोजन का वह विशेष कार्य, समूह और उस समय के बोल, मिल कर ही एक पूर्ण यथार्थ की स्थापना करते हैं। उस पूर्णता से विच्छिन्न एक अंश-विशेष से केवल समग्रता का थोड़ा-सा अनुमान किया जा सकता है, अनुभव नहीं। ये ध्वनि-समूह समय वातावरण के केवल अंश-मात्र हैं। काल्पनिक उड़ान से इनके सत्य की गहराई तक नहीं पहुंचा जा सकता। इन ध्वनियों की समूहगत आवश्यकता को समझने से ही इनकी महत्ता का सही रूप में अंकन किया जा सकता है। इन ‘भणतों’ के अस्तित्व की या इनके स्वरूप की अपनी निजी अनिवार्यता है। अपनी निजी सार्थकता है। मनुष्य की एकान्तिक चिंतना ने इनके अस्तित्व को जन्म नहीं दिया बल्कि समूह की जीवन-आवश्यकता के बीच इन ‘गेय ध्वनियों’ ने स्वयं अपने बल पर अपने को निर्मित किया है। इसलिए काव्य के सिद्धान्तों से इनकी परख नहीं की जा सकती। जीवन-आवश्यकता की अनिवार्यता से ही इनके सही मर्म और इनकी वास्तविक महत्ता के गम्भीर तत्वों को पहचाना जा सकता है।

लेवौ भिड़ीजी नाळेरौ

नाळेरौ नागौर रौ

चोटी बीकानेर री

साळू सांगानेर रौ

पैलै छेड़ै नाळेरौ

काची गिरियां नाळेरौ

लांबी चोटी नाळेरौ

सामूहिक रूप से घास या धान की कटाई हो रही है। किसान पाँत बना कर बैठे हुए हैं। हाथ में उनके हँसिया है। वे उससे धान काटेंगे। वे उससे घास काटेंगे। एक साथ कटाई आरम्भ होती है। हँसिया हिलाने के साथ ही ‘भणतों’ के बोल समूह के कंठों से ध्वनित हो उठते हैं। अपने साथियों से कहा जा रहा है जो ज्यादा कटाई करेगा उसे नारियल मिलेगा। देखें कौन उस नारियल का हकदार होता है? कोई भी वह नारियल स्वयं नहीं लेना चाहता। हर कोई यह चाहता है कि उसका साथी ही वह नारियल ले। लोक-जीवन की प्रतियोगिता भी मानवोचित उदारता से शून्य नहीं होती। ‘साथी, यह नारियल तुम लेवो। नारियल ठेठ नागौर का है। चोटी उसकी बीकानेर की है। सांगानेर का सालू है उसका। नारियल कच्ची गिरियों वाला है। अत्यंत मीठा। चोटी इसकी लम्बी है। अत्यंत सुन्दर। नारियल खेत के उस परले किनारे पर है। वहाँ जाने से ही मिलेगा।’ हर मेहनत करने वाले के हाथ में ऐसा ही मीठा नारियल होता है। लोक-जीवन में मेहनत एक कला है। वह अपने आप ही में मधुर है।

कड़बी काटै नी मोटियार

यूं म्हारी जोड़ी रौ जवांन

जोड़ी जुतजा रै जवांन

लोक-जीवन के लिए मेहनत करना, एक सर्वोपरि आनन्द की वस्तु है। उसके लिए तो मेहनत करना ही सच्ची जिन्दगी है। उससे जी चुराना तो उसकी निगाह में मौत से भी बदतर है। मेहनत के समय उसके हौसले बढ़ जाते हैं। उत्साह द्विगुणित हो जाता है। मन हर्षातिरेक से नाच-नाच उठता है। ‘तुम भी जवान हो, मैं भी जवान हूँ। दोनों की बड़ी सुन्दर जोड़ी है। काम करने से इस जोड़ी की सुन्दरता और भी बढ़ेगी।

देवर नै भौजाई, बाबल, बाचौ नी दांतळियौ

दूधां रा पियाकड़, देवरजी, आवण दौ दांतळियौ

छाछां री पियाकड़, भावज, आवण दै दांतळियो

सासू रा चूंग्योड़ा, देवर, आवण दौ दांतळियौ

हँसिया चलाते समय, देवर-भौजाई की यह सुन्दर प्रतियोगिता, बस देखते ही बनती है। ‘देवर लाला! आने दो अपनी पूरी ताक्त से हँसिया। मैं भी देखूं तो जरा सास के दूध की ताकत। मेरी सास के लाडले, आने दो अपनी पूरी ताकत से हँसिया। देखूं तो जरा सास के दूध की ताकत।’ देवर दूध पीने वाला है। भावज छाछ पीने वाली है। छाछ और दूध की ताकत का जोर तोला जा रहा है।

लोक-जीवन की दृष्टि में श्रम से बढ़ कर अन्य कोई गौरव की वस्तु नहीं है। श्रम ने गीतों को पैदा किया तो लोक-जीवन ने अपने गीतों में श्रम के गौरव का जी भर कर बखान किया है। श्रम की वंदना करके उसके प्रति अपनी कृतज्ञ-भावना को सहज भाव से दर्शाया है। मेहनत उसकी जिन्दगी का अपूर्व संगीत है। उसका अतुलनीय नृत्य है। उसकी सर्वोच्च कला है। उसका श्रेष्ठतम विज्ञान है।

अप्रेल १६५६

स्रोत
  • पोथी : साहित्य और समाज ,
  • सिरजक : विजयदान देथा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी शोध-संस्थान चोपासनी, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
जुड़्योड़ा विसै