अरावली पर्वतमाला के एक छोर पर स्थित प्रसिद्ध नाहरगढ़ दुर्ग का निर्माण सवाई जयसिंह ने 1734 ई. में करवाया था। क़िले के भीतर एक सुदर्शन कृष्ण का मन्दिर निर्मित है, इसी कारण इस क़िले का दूसरा नाम सुदर्शनगढ़ भी है। ऐसी मान्यता है कि महाराजा सवाई जयसिंह अपनी नई राजधानी की सुरक्षा के लिए यह दुर्ग बनवा रहे थे, इस बीच जुझार नाहरसिंह ने सतत रूप से क़िले के निर्माण में विघ्न डाला। राजा के कहने पर प्रसिद्ध तांत्रिक रत्नाकर पौण्डरीक ने नाहरसिंह बाबा को अन्यत्र जाने के लिए राजी कर लिया । सन् 1727 ई. में जयपुर नगर बसाने के लगभग सात वर्ष बाद नाहरगढ़ का निर्माण जयपुर की सुरक्षा की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कदम था।
दुर्ग में जाने के लिए शहर से एक घुमावदार रास्ता बना है जो ‘नाहरगढ़ का रास्ता’ कहलाता है। क़िले की प्राचीर के नीचे बना जलाशय इस दुर्ग की जलापूर्ति का प्रमुख स्त्रोत है। क़िले की सुदृढ़ बुर्जों पर रियासतकाल में विशालकाय तोपें रखी जाती थीं; जो शत्रु के आक्रमण को रोकने में समर्थ हुआ करती थीं। ये महल एक छोटी सुरंग द्वारा आपस में जुड़े हुए हैं। किले के अन्य प्रमुख भवनों में हवा मन्दिर, महाराजा माधोसिंह का अतिथिगृह, सिलहखाना आदि उल्लेखनीय हैं।
नाहरगढ़ अपने अद्भुत शिल्प और सौन्दर्य के कारण प्रसिद्ध है। चित्रांकन इन राजमहलों की प्रमुख विशेषता है। नाहरगढ़ के तमाम राजप्रासादों का निर्माण जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह (द्वितीय) तथा उनके बाद सवाई माधोसिंह ने अपनी नौ पासवानों (प्रेयसियों) के नाम पर यहाँ नौ इकमंजिले और दुमंजिले महलों का निर्माण करवाया— सूरज प्रकाश, खुशहाल प्रकाश, जवाहर प्रकाश, ललित प्रकाश, आनन्द प्रकाश, लक्ष्मी प्रकाश, चाँद प्रकाश, फूल प्रकाश और बसन्त प्रकाश उनमें उल्लेखनीय हैं। इन महलों के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता उनकी एकरूपता और रंगों का संयोजन है। ऐसा कहा जाता है कि जयपुर के महाराजा सवाई जगतसिंह ने अपनी प्रेयसी रसकपूर को वीर निवास देने का वचन दिया, तब जयपुर के कई सामन्तों ने उसका यह कहकर विरोध किया कि—‘‘किले हमारे बिल हैं, विपत्ति आने पर संकट के समय हम इनमें आश्रय लेते हैं और इनमें रहकर अपने शत्रु का संहार करते हैं।’’
पर्यटन की दृष्टि से प्रचुर सम्भावनायें लिए खड़ा यह क़िला अलग ढंग की आभा रचता है।