राजस्थान में प्रचलित ख्यालों का प्रभाव मालवा के लोकनाट्य माच पर दिखाई देता है। राजस्थानी ख्यालों और मालवा के माच में शैलीगत और कथानकों की साम्यता देखी जा सकती है, वहीं भाषा, पहनावे, संवाद, रंगमंच, रंग-सज्जा और प्रस्तुतीकरण में स्थानीय रंगत दृष्टिगोचर होती है।

राजस्थान के मालवा क्षेत्र झालावाड़ में माच के ख्याल खूब प्रचलित हैं। इन ख्यालों का मंचन प्राय: मंदिर के पास होता है। इनका मंच काफी भव्य होता है जिसे केले के तनों, पुष्पों की बंदनवार और रंग-बिरंगी किनारियों से सजाया जाता है। माच का मंच त्रिदिशीय होता है जिसमें दर्शक मंच के सामने और दायें-बायें बैठते हैं। इसकी प्रस्तुति देर रात्रि से शुरू होकर दिन उगने के तीन-चार घंटे बाद तक चलती है। माच में सारंगी, तबला और ढोलक वाद्यों का प्रयोग किया जाता है। पहले कलाकार गाते हैं और उसके बाद साजिंदे संगत करते हैं। मंच के दायीं तरफ टेरिये टेर उगेरते हैं तो कलाकार भी थिरक उठते हैं। माच के ज्यादातर संवाद संगीतात्मक होते हैं जिनमें दोहों और चौबोलों का प्रयोग किया जाता है।

माच के ख्याल वीर, प्रेम और भक्ति भावना प्रधान होते हैं। इनमें पचफूला, गोपीचन्द, आभलदे-खेमरा, ढोला-मारू, हीर-रांझा, प्रहलाद, हरिश्चंद्र, मोरध्वज, अमरसिंह राठौड़, मीर गाफरू, मूनारानी, सदाव्रच्छ सारंगा आदि ख्याल काफी लोकप्रिय हैं। माच के ख्यालों लेखकों में बशीर जुलाहा, गोविंदराम भंडारी, भंवरसिंह आदि मुख्य हैं। झालावाड़ के गागरौण और पाटन माच ख्यालों के प्रसिद्ध अखाड़े हैं।

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