वर्षा-ऋतु में घूमली रियासत का राजकुमार जेठवा अपने मित्रों के साथ शिकार करने के लिए महल से निकला। वह और उसके साथी जंगल में शिकार कर रहे थे तभी अचानक भयंकर आंधी-बरसात शुरू हो गई। जेठवा अपने साथियों से बिछुड़ गया और जंगल में भटक गया। तीव्र बरसात में ठंड लगने से जेठवा बेहोश हो गया। उसका घोड़ा आगे चलता गया और एक झौंपड़ी के सामने जाकर रुक गया। यह झौंपड़ी वृद्ध अमरो चारण और उसकी कुंवारी बेटी ऊजळी की थी। घोड़े की हिनहिनाहट सुनकर दोनों बाहर आए तो बेहोश जेठवा को देखा। वे उसे अंदर लेकर आए और अलाव जलाकर उसकी ठंड दूर करने की कोशिश की पर जेठवा को होश नहीं आया। घर आए मेहमान की जान बचाना उन दोनों का कर्तव्य था। जेठवा पहनावे और चेहरे से किसी ऊंचे घराने का लग रहा था।


उसकी बेहोशी दूर नहीं होते देखकर पिता-पुत्री की चिंता बढ़ गई। काफी देर सोचने के बाद अमरो ने अपनी बेटी ऊजळी को वस्त्र उतारकर जेठवा के साथ सोने को कहा ताकि उसके तन की गर्माहट से जेठवा को होश में लाया जा सके। ऊजळी संशय में थी पर उसने अपने पिता की बात मानी और रातभर जेठवा के साथ सोकर उसे तन की गर्मी देती रही। भोर होने के साथ ही जेठवा होश में आ गया। जेठवा ने ऊजळी से पूरा वृतांत जाना। वह नवजीवन देने वाली ऊजळी के प्रति आभारी था। दोनों के हृदय में प्रेमांकुर फूटे। जेठवा ने ऊजळी के साथ विवाह का वादा किया और अपने घर चला गया।


दोनों अक्सर मिलते रहते। जेठवा के विवाह की बात सुनते ही घर और समाज के लोगों ने इंकार कर दिया। कारण यह था कि जेठवा राजपूत था और ऊजळी चारण वंस में जन्मी थी। राजपूत चारण कन्याओं को बहन मानते थे। इसी मान्यता के कारण जेठवा और ऊजळी आपस में भाई-बहिन के नाते में थे। जेठवा ने परिवार और समाज के भय से ऊजळी से मिलना बंद कर दिया।


ऊजळी विरह अग्नि में जलती रही। उसे अपने जीवन की एक-एक घड़ी वर्ष के बराबर लगने लगी। पिता भी अपनी बेटी की हालत देखकर चिंतित था। उसने अपनी बेटी को दूसरा विवाह करने के लिए समझाया पर ऊजळी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। विरह-अग्नि में जलती ऊजळी जेठवा से मिलने के लिए चल दी। लोकलाज के डर से जेठवा ने ऊजळी से मिलना बंद कर दिया था पर उसे भी मन ही मन पछतावा हो रहा था। उसने महल से निकलना तक बंद कर दिया।
 

ऊजळी पग-पग डगर तय करती जेठवा के महल तक पहुंच गई पर उसे भीतर जाने से रोक दिया गया। अनेक प्रयासों के बाद ऊजळी जेठवा के महल में जाकर उससे मिलने में सफल हुई। जेठवा ने ऊजळी को जैसे ही देखा तो वह आनंद-विभोर हो गया। पर उसे तुरंत सामाजिक और पारिवारिक बंधन याद आ गए। वह अबोला बैठा रहा। उसकी चुप्पी को देखकर ऊजळी ने भांप लिया कि जेठवा अब प्रीत-पगा नहीं रह गया है।


उसने बारम्बार जेठवा से विवाह का वायदा निभाने का विनय किया पर वह विवाह से मना करते हुए प्रलोभन आदि देकर ऊजळी से पीछा छुड़ाने का प्रयास करने लगा। उसने ऊजळी को जागीर और धन का लालच दिया पर ऊजळी सभी लोभ-लालच ठुकराकर विवाह करने की बात पर अडिग रही। जेठवा उससे विवाह के लिए नहीं माना। ऊजळी ने उसके सामने अनेक बार विनती की पर जेठवा लोकलाज के डर से विवाह नहीं कर पाया।


आखिर में उसने जेठवा को श्राप देते हुए कहा कि तुम्हारे तन की गर्मी से मेरा कौमार्य भंग हुआ है। ऐसे तन में आग लग जाए। यह कहकर ऊजळी संसार से विरक्त होकर हिमालय में गलने के लिए चली गई। उसका दिया श्राप भी फलीभूत हुआ। हिमालय की बर्फ में गलकर जैसे ही ऊजळी ने प्राण त्यागे, जेठवा का शरीर भी अंगारों की भांति जलने लगा और वह तड़प-तड़प कर मर गया।
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