व्रत विधि
भारतीय समाज में नवरात्रों में देवी उपासना अगाध श्रद्धा के साथ की जाती है। इसमें व्रतधारी नवरात्रा के पहले दिन घट-स्थापना करने के साथ गणेश और शक्ति की पूजा करके व्रत की अवधि में सात्विक जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेते हैं। इसके बाद भूमि पूजन किया जाता है। स्थापित किए गए घटों (घड़े) पर कपड़े का ढक्कन लगाकर उन्हें धागों से बांधा जाता है। नवरात्रों में इन घटों की दैनिक पूजा की जाती है। इन दिनों में जल देवता की स्तुति करना, दुर्गा सप्तसती का पाठ करना, कन्या पूजन करना आदि धार्मिक क्रियाकलाप चलते रहते हैं। इस व्रत की अनेक विधियां राजस्थान में प्रचलित हैं। पुराने समय में इन दिनों में पशु-बलि देने का चलन भी था। नवरात्रि के दिनों में देवी की पूजा उनके मंदिर में जाकर की जाती है। नवरात्रा के पहले दिन से लेकर समापन तक की कथाएं लोकप्रचलित हैं। शक्ति के विविध रूपों द्वारा किए गए चमत्कारों की उक्त कथाएं क्रमवार इस प्रकार हैं –
महाकाली
एक बार संसार में ऐसी प्रलय आई कि समूची पृथ्वी जलमग्न हो गई। ऐसे ही समय में भगवान विष्णु की नाभि में कमल का उदय हुआ और उसमें से ब्रह्माजी प्रकट हुए। इसके बाद भगवान के कानों से मैल निकला जिससे कैटभ और मधु नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए। दैत्यों ने चौतरफा दृष्टि धुमाई तो उन्हें ब्रह्माजी के अलावा कोई नजर नहीं आया, जो उनके भय से थर-थर कांप रहे थे। ऐसे समय में ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु का स्मरण किया। भगवान की आंखों में महामाया ब्रह्मा की योग निद्रा के रूप में निवास करती थी। वह लुप्त हो गई और नींद खुल गई। इसके बाद दोनों दैत्य भगवान विष्णु से युद्ध पर उतारू हो गए। वे पांच हजार साल तक युद्ध करते रहे।
अंतत: भगवान की रक्षा करने के लिए महामाया ने उपाय निकाला और दैत्यों की बुद्धि को पलट दिया। उसके बाद दैत्य विष्णु से बोले – ‘आपने हमारे साथ युद्ध में बड़ी वीरता दिखलाई है, जिससे हम बड़े प्रसन्न हैं, आप हमसे जो चाहें, वह मांग सकते हैं।’ भगवान ने इस उचित अवसर का लाभ उठाने में चूक नहीं की और दैत्यों से बोले – ‘वर देना है तो यह दीजिए कि दैत्यों का सर्वनाश हो जाए।’ दैत्यों ने कहा – ‘तथास्तु! ऐसा ही होगा।’ इतना कहते ही महाबली दैत्यों की मृत्यु हो गई। दैत्यों की बुद्धि पलटने वाली शक्ति महामाया का वह अवतार महाकाली के रूप में पूजा गया।
महालक्ष्मी
एक समय महिषासुर नामक दैत्य पैदा हुआ जिसने धरती और पाताल लोक के सभी राजाओं को मारकर उनका राजपाट छीन लिया। उसे अपनी ताकत का बेहद घमंड हो गया। इसके बाद उसने देवताओं पर हमला कर दिया और उनको पराजित करके भगा दिया। हारे हुए देवता दौड़ते-भागते भगवान विष्णु के पास पहुंचे और विष्णु व शंकर की स्तुति करने लगे। उनके तप से विष्णु और शंकर दोनों प्रसन्न हुए और अपने तन से तेज उत्पन्न करके महालक्ष्मी को प्रकट किया। शक्ति के इस अवतरित रूप ने देवताओं का दुख दूर किया।
महासरस्वती
किसी समय सुम्भ-निसुम्भ नाम के दो बलशाली राक्षस पैदा हुए थे। उन्होंने मानव तो क्या, देवताओं तक को नहीं छोड़ा। उन्होंने देवताओं को पराजित करके स्वर्ग से भगा दिया। हारे हुए देवताओं ने भगवान विष्णु की स्तुति की। वे उनकी स्तुति से प्रसन्न हुए और अपने शरीर से ज्योति निकालकर महासरस्वती को प्रकट किया। महासरस्वती बेहद रूपवान और मनमोहक थी। दैत्य उसके रूप पर मुग्ध हो गए। उन्होंने अपने दूत सुग्रीव को प्रेम का संदेश देकर देवी के पास भेजा। देवी ने उस दूत को फटकार दिया और वह दैत्यों के पास वापस आ गया। इसके बाद उन्होंने देवी को जबरन लाने के लिए अपने सेनापति धूम्राक्ष को सेना सहित भेजा पर देवी महासरस्वती ने सेनापति को सेना सहित मार गिराया। इसके बाद चंड-मुंड नामक दैत्य देवी से लड़ने के लिए गए और उसके हाथों मारे गए। इसके बाद महाबली दैत्य रक्तबीज महासरस्वती से युद्ध करने के लिए आया। उसे वरदान था कि उसके रक्त की बूंद गिरते ही एक नया राक्षस पैदा हो जाएगा। देवी ने उसके रक्त की किसी भी बूंद को धरती पर गिरने से पहले ही खप्पर में भर लिया और पी गई। अंतत: रक्तबीज की भी वही गति हुई जो पहले वालों की हुई थी। अंत में सुम्भ-निसुम्भ खुद देवी से लड़ने के लिए आए और मारे गए। सभी दैत्यों के मरने के बाद देवताओं ने महासरस्वती की वंदना की और आभार जताया।
जोगमाया
जब देवकी और वासुदेव के छ: पुत्रों की जन्म होते ही कंस ने हत्या कर दी तो सातवीं बार गर्भ में स्वयं भगवान ने प्रवेश किया और घोषणा की कि आठवें पुत्र के रूप में खुद ईश्वर कृष्ण के रूप में अवतरित होंगे। कृष्ण के जन्म के साथ ही यशोदा के गर्भ से जोगमाया का जन्म हुआ। इसी महामाया को बाद में वासुदेव श्रीकृष्ण के बदले में मांगकर मथुरा ले आए। जब कंस ने कन्या महामाया को पटककर मारना चाहा तो वह उसके हाथों से छिटककर आकाश में लुप्त हो गई। जाते समय उसने भविष्यवाणी करते हुए कहा – ‘तुम्हें मारने वाला जन्म ले चुका है, सावधान रहना।’ आगे चलकर इसी जोगमाया ने श्रीकृष्ण के साथ योग विद्या और महाविद्या बनकर कंस आदि राक्षसों का संहार किया।
रक्त-दंतिका
एक समय वैप्रचित्ति नामक अत्याचारी राक्षस ने लोगों में आतंक फैला दिया था। उसके अत्याचारों से मानव और देवता दोनों तंग आ चुके थे। उनकी याचना सुनकर शक्ति ने दुर्गा-भवानी के रूप में अवतार लिया और वैप्रचित्ति आदि दैत्यों को मारकर उनका रक्त पीया। उनके इसी कार्य से उनके इस रूप को रक्त-दंतिका नाम से पूजा गया।
शाकम्भरी
युगों पहले की बात है। एक बार लगातार सौ वर्षों तक एक बूंद भी बरसात नहीं हुई जिससे पूरी पृथ्वी पर हाहाकार मच गया। मनुष्य और जीव भूख-प्यास से मरने लगे। ऐसे विपत्ति भरे समय में ऋषि-मुनियों ने देवी भगवती की आराधना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर जगदंबा ने शाकम्भरी नामक अवतार लिया और अपनी चमत्कारिक शक्ति से वर्षा करवाई। इसके बाद धरती के प्राणियों को अन्न-जल प्राप्त हुआ। शक्ति के इस अवतार को शाकम्भरी के रूप में पूजा गया।
दुर्गा
एक समय भारत देश में दुर्गम नाम का बलशाली दैत्य हुआ था। उसकी धाक धरती से लेकर पाताल लोक तक थी। जब वह चलता तो धरती भी हिलने लगती। उसके आतंक से देवता भी तंग आ गए थे। उन्होंने इस विपदा से बचाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना की तो उनके विनय को स्वीकारते हुए भगवान ने शक्ति रूपा दुर्गावतार लिया। इसी अवतार ने दुर्गम राक्षस का वध करके तीनों लोकों में दुर्गा के नाम से ख्याति प्राप्त की।
भ्रामरी
किसी समय अरुण नामक दैत्य ने धरती के साथ-साथ स्वर्ग में भी अपना आतंक फैला दिया था। हालात यहां तक पहुंच गई कि वह और अन्य दैत्य देवताओं की पत्नियों के साथ भी अमर्यादित व्यवहार करने लगे थे। वे उनसे जबरदस्ती करने पर आमादा हो चुके थे। ऐसी स्थिति में देवों की पत्नियों ने ‘भंवरों’ का रूप धारण करके देवी दुर्गा से अपने सतीत्व की रक्षा करने की याचना की। उनकी विनती सुनकर दुर्गा ने भ्रामरी का रूप धारण करके उस राक्षस को सेना सहित मारा।
चंडिका
चंड-मुंड नाम के दो असुरों ने किसी समय अपने आतंक के बल पर पूरे संसार को अपने वश में कर लिया था। उनका साम्राज्य धरती और पाताल से लेकर स्वर्गलोक तक विस्तृत हो ग्या था। उन्होंने स्वर्ग लोक के देवताओं को पराजित करके उनका राज्य छीन लिया था। हारे हुए देवताओं ने शक्ति की आराधना की तो उसने चंडिका के रूप में अवतार लिया और चंड-मुंड को मारकर तीनों लोकों में शांति स्थापित की। देवों को उनका खोया राज्य वापस मिला और सब जगह हर्ष व्याप्त हो गया।
दशहरा
इस दिन को भगवान राम की रावण पर विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के बाद नवरात्रों के व्रत सम्पन्न होते हैं। इस दिन संध्या के समय नीलकंठ पक्षी का दर्शन होना बेहद शुभ माना जाता है।
नवरात्रा व्रत कथा का महत्व
एक समय पार्वती ने दशहरे के फल के बारे में सवाल उठाया तब शिव ने ‘विजयकाल’ के बारे में चर्चा करते हुए कहा – ‘शत्रु को पराजित करने के लिए इस समय प्रस्थान करना श्रेष्ठ होता है। इस अवसर पर यदि श्रवण नक्षत्र का संयोग भी हो तो सोने पर सुहागा होता है। श्रीराम ने इसी ‘विजयकाल’ में लंका पर चढ़ाई की थी। इसी घड़ी में अर्जुन ने शमी वृक्ष से बना धनुष धारण किया था। जब दुर्योधन ने पांडवों को जुए में हराकर उनका राज्य छीन लिया था तो वे अज्ञातवास में चले गए। इसी प्रवास के समय अर्जुन ने अपना धनुष एक खेजड़ी के वृक्ष पर टांग दिया था। बाद में इस धनुष को गौरक्षा करने के लिए अर्जुन ने पुन: उठाया और विजय हासिल की। एक बार युधिष्ठर से श्रीकृष्ण ने कहा था कि दशहरे के दिन प्रत्येक राजा को अपने सभी दरबारियों, सेना, पुरोहितों और नौकर-चाकरों के साथ पूर्वी दिशा में राज्य की सीमा तक अवश्य जाना चाहिए। इससे उसका राज्य सदैव अखंड रहेगा।’ इस प्रकार नवरात्रों का बड़ा धार्मिक महत्त्व है।