बड़सांयत अमावस्या की व्रत कथा, सत्यवान-सावित्री की कथा (ज्येष्ठ अमावस्या की कथा)

लोक परंपरा
व्रत विधि
ज्येष्ठ अमावस्या को ‘बड़सांयत अमावस्या’ भी कहा जाता है। इस दिन औरतें सत्यवान, सावित्री और यम की पूजा करते हुए व्रत रखती हैं। वे समूह में बड़ के पेड़ के नीचे जाकर वहां कुमकुम, चावल, हल्दी, भीगे हुए चने और घी का दीपक रखकर उसकी सात परिक्रमा लगाती हैं। यह व्रत ज्येष्ठ वदी त्रयोदशी से शुरू करके अमावस्या तक रखा जाता है। व्रत की समाप्ति ‘सत्यवान-सावित्री’ की कथा सुनकर की जाती है। यह व्रत अखंड सौभाग्य और संतान की सुख-समृद्धि की कामना से किया जाता है। कथा की नायिका सावित्री अपने मृत पति सत्यवान को व्रत के प्रताप से यम से जीतकर ले आती है। इस व्रत को औरतें काफी श्रद्धा से रखती हैं।

सत्यवान-सावित्री की कथा (बड़सांयत अमावस्या की कथा)
किसी समय मद्र देश में अश्वपति नामक बड़े ज्ञानी और धार्मिक स्वभाव के राजा का शासन था। उनके पास राजसी वैभव, ठाट-बाट और सभी सुख मौजूद थे पर वे नि:संतान थे। संतान प्राप्ति के लिए राजा और रानी ने वटसावित्री का व्रत रखना आरंभ किया। उनके जप-तप और हवन आदि के पुण्य-प्रताप एवं समर्पण से प्रभावित होकर खुद सावित्री ने प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिए। आशीष देते हुए वह बोली कि तुम्हारे भाग्य में बेटे का सुख नहीं है पर तुम्हारे यहां एक ऐसी कन्या जन्म लेगी जो दोनों कुलों का नाम रोशन करेगी। लेकिन आपको उस कन्या का नाम मेरे नाम पर रखना होगा। इतना कहकर सावित्री ओझल हो गई।

इस प्रसंग के बाद समय गुजरता गया। रानी गर्भवती हुई पर वह वटसावित्री व्रत को लगातार करती रही। समय आने पर रानी ने कन्या को जन्म दिया। देवी के कहे अनुसार उसका नाम सावित्री रखा गया। वक्त गुजरता गया। जब सावित्री विवाह-योग्य हो गई तब राजा ने कहा कि यह खुद समझदार है, अपना वर खुद तय करेगी। इसके बाद सावित्री राज्य के बुजुर्ग मंत्री के साथ वर ढूंढने के लिए निकली।

एक दिन मद्र नरेश से मिलने के लिए नारद मुनि आए। संयोग से उसी सभा में सावित्री योग्य वर की तलाश पूरी करके वापस पहुंची। नारद ने मंत्री से पूछा कि क्या इस कन्या को उचित वर मिला? मंत्री ने जवाब देते हुए कहा कि यह जिम्मा तो सावित्री को ही दिया गया है। नारद ने सावित्री की तरफ देखा तो वह बोली कि द्युमत्सेन का राज रुक्मी ने छीन लिया, वह अंधा भी हो गया और रानी के साथ वन में रहता है। उनके पुत्र सत्यवान को मैंने अपने वर के रूप में चुना है। यह सुनकर नारद ने राजा अश्वपति से कहा कि आपकी कन्या ने अनेक विपदाएं झेलकर अच्छा वर चुना है। सत्यवान बड़ा गुणी, रूपवान और धार्मिक स्वभाव वाला राजकुमार है। वह अपने नाम को सार्थक करता है। उस जैसा दूसरा योग्य वर नहीं मिलेगा पर दुर्भाग्य से उसकी आयु अब केवल बारह वर्ष ही शेष रही है।

नारद का यह कथन सुनकर मद्र नरेश चिंतित हो गए। उन्होंने सावित्री से कहा कि ऐसी दशा में तुम्हें दूसरा वर तलाश लेना चाहिए। पिता की बात सुनकर वह बोली कि मैंने मन से सत्यवान को अपना पति मान लिया है। उसके अलावा मैं किसी का वरण करने के बारे में सोच भी नहीं सकती, भले ही खुद देवराज इंद्र के साथ विवाह करने का अवसर मिले। पिता-पुत्री की बातचीत में हस्तक्षेप करते हुए नारद ने कहा – ‘राजन, अब सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा है।’

राजा अश्वपति विवाह सामग्री लेकर अपनी पुत्री और मंत्री के साथ वन में गए। वहां पहुंचकर राजा ने द्युमत्सेन की चरण-वंदना करते हुए अपना परिचय दिया। द्युमत्सेन ने उनसे वहां आने का कारण पूछा तो अश्वपति ने बताया कि वे अपनी पुत्री का विवाह उनके पुत्र सत्यवान के साथ करवाने के लिए आए हैं। राजा की बात सुनकर द्युमत्सेन उदास होकर बोले – ‘आप बड़े शासक हैं और हम ठहरे वनवासी। राजपाट सब जा चुका, ऊपर से अंधे भी हो चुके। आपकी कन्या महलों में पली-बढ़ी है, यहां का अभावों से भरा जीवन नहीं बिता पाएगी।’ अश्वपति ने द्युमत्सेन की बातें सुनकर प्रत्युत्तर दिया कि मेरी पुत्री ने इन सभी बातों को जानने-समझने के बाद यह निर्णय लिया है। वह सास-ससुर के चरणों को अपना बैकुंठ मानती है। सावित्री को निर्णय पर अटल देखकर द्युमत्सेन ने अपने पुत्र सत्यवान का विवाह उसके साथ करवाने की स्वीकृति दे दी। परंपरागत रिवाजों का पालन किए बिना दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ। राजा अश्वपति अपने महलों में आ गए। दूसरी तरफ सावित्री अपने पति सत्यवान और सास-ससुर के साथ वन में सुखपूर्वक रहने लगी।

सावित्री नारद द्वारा की गई भविष्यवाणी से अवगत थी। वह उस अवधि के दिनों की गणना रखती थी। भविष्यवाणी में बताए गए दिन जब नजदीक आ गए तो सावित्री ने तीन दिन पहले ही उपवास रखना शुरू कर दिया। अंतिम दिन उसने पित्तरों (पूर्वजों) की पूजा की। जब सत्यवान ने उससे वन में साथ चलने के लिए कहा तो वह सास-ससुर से आज्ञा मांगकर अपने पति के साथ वन में चली गई।

वन में पहुंचते ही सत्यवान पेड़ पर चढ़कर फल तोड़ने लगा। इसी दौरान उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह नीचे उतरा और सावित्री के आंचल में सिर रखकर सो गया। थोड़े समय बाद उसने देखा कि खुद यमराज यमदूतों के साथ मौत का फंदा लेकर आ चुके हैं। उन्होंने सत्यवान के प्राण हरकर उसकी आत्मा को अपने नियंत्रण में ले लिया और ओझल हो गए। सावित्री यमराज के पीछे-पीछे चलती गई। उसे अपने पीछे आता देख यमराज ने कहा कि तुम तब तक ही साथ चलना, जब तक जीवित प्राणी का साथ निभाया जाना संभव हो। तुमने अपने पति का साथ हरसंभव निभाया पर अब घर लौट जाना ठीक रहेगा। यमराज का कथन सुनकर सावित्री ने कहा – ‘हे यमराज! जहां मेरे पति जाएंगे। वहां मुझे भी जाना है। मुझे पति-धर्म निभाने से कोई नहीं रोक सकता।’

सावित्री का कथन सत्य था, सो उससे प्रभावित होकर यम ने सावित्री को वर मांगने को कहा। उचित अवसर देखकर सावित्री ने अपने सास-ससुर का अंधापन दूर करने का वर मांग लिया। यम तथास्तु कहकर आगे बढ़ने लगे। सावित्री भी अपने पति की आत्मा के पीछे चलती गई। उसका समर्पण देख यमराज को भी दया आ गई और उससे अन्य एक वर मांगने को कहा। इस बार सावित्री ने अपने ससुर का खोया राजपाट लौटाने का वर मांग लिया। यमराज ने इस पर हामी भर दी पर सावित्री घर नहीं गई। यम ने उससे जाने को कहा तो उसने सौ भाई पैदा होने का वर देने की प्रार्थना की, यम ने यह वर भी दे दिया। इसके बाद भी वह वहीं खड़ी रही तो यम चौंक गए। सावित्री ने एक वर और देने की प्रार्थना की। यम ने हां कह दी। इस बार उसने सौ पुत्र पैदा होने का वर मांग लिया। उसका कथन सुनकर धर्मराज संकट में पड़ गए। वे कुछ देर सोचते रहे। फिर कहा कि जाओ, तुम्हें सत्यवान से सौ पुत्र पैदा होंगे।

यम का यह कथन सुनकर सावित्री वापस लौटकर बड़ के पेड़ के नीचे आई। वहां उसके पति सत्यवान पुनर्जीवित हो चुके थे। सावित्री ने अपने पति को पूरा वृतांत सुनाया। इसके बाद दोनों घर लौटे तो देखा कि सत्यवान के माता-पिता का अंधापन दूर हो चुका था। सब जगह सावित्री की महिमा का बखान किया जा रहा था। सत्यवान-सावित्री के सौ पुत्र पैदा हुए। उन्होंने वर्षों तक राज किया। उचित आयु प्राप्त करने के बाद सत्यवान और सावित्री का स्वर्गवास हुआ।
जुड़्योड़ा विसै