हरेक भासा का प्रत्यय न्याळा-न्याळा होवै छै। ऊंका स्वार्थिक प्रत्ययां सूं ऊंकी खास पछाण बणै छै। कदीं-कदीं तो थांको जनम ऊं भासा में ई होवै छै, पण ज्यादातर ये आपणी दादी-मां भासान सूं आवै छै। यां को जनम तो लोक-भासा सूं होवै छै, पण साहित्य-भासा में ये आदर पाबा लाग जावै छै, अर ऊंको घणूं उपकार कर उंईं समरथ बणावै छै।
राजस्थानी की अेक मोटी पछाण ऊंका स्वार्थिक प्रत्ययां सूं बणै छै। बातचीत में ऊंका ‘ट’ अर ‘ड़’ प्रत्यय रै-रै’र सुणबा में आवै छै। सरू में तो प्यार, घृणा अर छोटा-बड़ापण ईं दरसाबा बेई ये प्रयोग में आवै छै, पण धीरां-धीरां यांमै सूं ये भाव तो लुपत हो जावै छै अर यां सूं बण्या सबद सामान्य अरथ में प्रयोग होबा लाग जावै छै (पण वै अरथ दरसाबा बेई बी वांको प्रयोग होवै छै); जस्यां न्हारड़ो (सिंह), बघेरड़ो (बघेरो), चामड़ो (पशुचर्म) आद। सबद को अदक चळन होबा सूं ऊंको खास अरथ सामान्या अरथ का थाणक पै जा बराजै छै।
स्वार्थिक प्रत्यय की परिभाषा
स्वार्थिक प्रत्यय अस्या प्रत्यय छै जे सबदां कै पाछै लागै छै, पण वांका लागबा सूं सबदां का अरथां में कोई बदळाव नै आवै। सबद को अरथ (स्वार्थ) ज्यूं-को-त्यूं बण्यो रै छै1 । तो जद ताईं सबद सूं सामान्य अरथ के लेरां प्यार, घृणा आद को भाव बी रैगो तद ताईं ऊंई स्वार्थिक प्रत्यय मानबो ठीक कोईनै, क्यूंकै तद ऊंनै, प्रत्यय लागबा सूं आपणो मूल अरथ तो छोड़्यो ई। सबद में छोटा-बड़ापण को भाव आबो बी नुओ अरथ धारण करबो ई छै। ईं बात ईं महाभाष्यकार नै या खै’र समझाई कै– ‘अनिर्दिष्टर्था प्रत्यय स्वार्थे भवन्ति।’ दूजा प्रत्यय तो नुआ अरथ नै जणावै छै, पण यां प्रत्ययां सूं ऊ ज्यूं-को-ज्यूं बण्यो रै छै।
संस्कृत में स्वार्थिक प्रत्यय तद्धित-प्रत्यय को भेद मान्यो छै अर तद्धित ईं या खै’र समझायो छै– ‘तेभ्यः प्रयोगेभ्यः हिऽताति तद्धिताः।’ ये प्रत्यय प्रतिपादक सबदां कै पाछै लाग’र वां सूं नुवा सबद बणावै छै2 अर अस्यां बण्यां सबदां सूं मूळ सबद सूं न्याळो प्रयोग को गेळो बणै छै।
स्वार्थिक प्रत्यय को कार्य-क्षेत्र
संस्कृत में तद्धितां को कार्य क्षेत्र संज्ञा, सर्वनाम अर विशेषण तांई दरसायो छै, पण यां कै साथ ‘आदि’ सबद लगा’र दूजा सबदां कै साथ ऊंकी लागबा की संभावना बा मानी छै। राजस्थानी में अस्या प्रत्यय भूतकालिक कृदन्त अर क्रिया-विशेषण कै पाछै बी लाग्या मलै छै। राजस्थानी में यां प्रत्ययां को सरूप यो छै।
संज्ञा कै पाछै - रींछड़ी, छांवळी
सर्वनाम कै पाछै - इसड़ी, जको,
विशेषण कै पाछै - कलूटो, लीलड़ी
भूतकालिक कृदन्त कै पाछै - ग्योड़ो, आयोड़ो
क्रिया-विशेषण कै पाछै – अतनोक, अतरोक, छणीकस्योक
संज्ञा शब्द कै बीचै – बगड़ावत3
राजस्थानी का स्वार्थिक प्रत्यय –
राजस्थानी का स्वार्थिक प्रत्यय ये छै
इय – मांचियौ, घोलियौ, मोटियौ
क – अतनोक, ज-को
ट – तेल-टो, बलावटो, चोट्टो (चोरटो)
ड़ – मोरड़ो, धोबड़ो, पंछीड़ो
ल – कागलो, घुड़लो
ळ – छांवळी
व – गींवदो (गयन्द)
कदीं-कदीं दो प्रत्यय एक साथ बी मलै छै
क-ल – चड़कलो
यां सबदां में लिंग वचन वाचक ‘ओ’ प्रत्यय लाग्यो हुयो छै।
स्वार्थिक प्रत्यय सूं सबद-बणावट
राजस्थानी एक वचन – पुल्लिंग सबदां की प्रवृत्ति ओकारान्ता की छै। जे बहुवचन में आकारान्त हो जावै छै अर स्त्रीलिंग अेकवचन सबद ईकारान्त होवै छै, जे बहुवचन में आकारान्त बण जावै छै। जद स्वार्थिक प्रत्यय अस्या सबदां कै पाछै लागै छै तो वांकी लिंग-वचन-बोधक स्वरांतता प्रत्यय कै पाछै चली जावै छै अर व्हां अकार हो जावै छै; जस्यां– घोड़ो-घुड़लो, जो-जकौ।
ईं प्रवृति का दरसण वां सबदा में बी होवै छै लिंग-वचन-बोधक प्रत्यय ज्यांकै साथ कोईनै होवै, पण स्वार्थिक प्रत्यय लागबा पै ऊंकै पाछै अस्या प्रत्यय आ जावै छै – चोर-चोरड़ो, छांव-छांवली, नाई-नाईटो, धोबी-धोबड़ो।
भूतकालिक कृदन्त में ईं प्रत्यय कै आगै अर पाछै लिंग-वचन-बोधक प्रत्यय मलै छै, पण आगै लागबा होळो प्रत्यय अविकारी होवै छै– सदा ‘ओ’ रैवै छै अर पाछै लागबा हाळा प्रत्यय विकारी होवै छै– लिंग-वचन की लेरां बदळतो रै छै– आयो-आयोड़ो, खायो-खायोड़ो; खायोड़ा-खायोड़ी।
कदीं-कदीं स्वार्थिक प्रत्यय मूल सबद कै पाछै लाग’र अविकारी रै छै अर मूळ सबद ईं लिंग-वचन का प्रत्ययां ईं अपणातो रै छै– अतरो-क, अतरीक-अतराक, जतनोक जतनीक जतनाक।
कदीं-कदीं बना लिंग-वचन-बोधक प्रत्यय का सबदां कै पाछै– ‘ड़’ प्रत्यय लगा’र आपणै साथ लिंग-वचन बोधक प्रत्यय नै लेवै–मायड़, सोकड़ (सौत)।
कर्तृ-वाचक पुल्लिंग ईकारान्त सबदां की ‘ई’ प्रत्यय कै लागबा सूं लोप हो जावै, पण जे ईकारान्त सबद कर्तृवाचक नै होवै वांमें वा बणी रै छै – तेली-तेलटो, माळी-माल्टो, पण– पंछी-पंछीड़ो।
स्वार्थिक प्रत्ययां की व्युत्पति
इय– ‘इय’ प्रत्यय संज्ञा सबदां में भी मलै छै, विशेषणा सबदां में बी अर भूतकालिक कृदन्तां में बी– माचियो, मोटियो, आवियो। अतनी ठोरां पै ईंका मलबा सूं यो बच्यार जागै छै कै राजस्थानी भासा की प्रवृत्ति ई असी छै। संस्कृत का भूतकालिक रूपां सूं बण्या ‘चलियो’ जस्या रूप तो समझ में आ जावै छै– सं. चलित> प्रा. चलिअ चलिओ> राज. चलियो, पण राजस्थानी संज्ञा रूपां को ठीक-ठाक समाधान नै सूझ पड़ै।
या बात तो चौड़ै छै कै संस्कृत में भूतकालिक कृदन्तां कै साथ कर्ता में तृतीया विभक्ति आवै छै। जद भूतकालिक कृदन्तीय रूप सामान्य भूतकाळ बेई बी प्रयोग में आबा लाग ग्या तद कर्ता का तृतीया विभक्ति का रूप बी घणा-घणा चलण में आया, फेर वांसूं नुवो विकास होयो। राजस्थानी– ‘इय’ प्रत्यय सं. तृतीया प्रत्यय-या/ऐ को ई विकास छै– या/ऐ>प्रा. अइ/इअ>राज. इय।
अेक संभावना या बी छै कै सं. का स्त्री-प्रत्यय-इका-इया सूं बण्या स्त्री-लिंगीय सबदां का वजन पै पुल्लिंग सबद पै– इयो प्रत्यय-वाळा रूप विकसित होया होवै।
ट/ड़/ळ ये सं. वृत>वट्ट> ट> ड़> ळ सूं व्युत्पन्न छै, पण डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी– ‘ड़’ प्रत्यय ईं अपभ्रंश की देन मानै छै।4
ल– यो प्रा. लइ (अच्छा-ठीक) सूं व्युत्पन्न छै।
व– यो सं. वै>प्रा. वइअ>अप. व अ>राज. व सूं व्युत्पन्न छै। या बी संभावना छै कै ईं की व्युत्पत्ति सं. इव>प्रा. इवअ> अप. वअ सूं होई होवै।