विधि
सिद्धि विनायक का व्रत गणेश-चतुर्थी (भाद्रपद वदी चतुर्थी) के दिन किया जाता है। सर्वप्रथम गणेश को स्नान करवाकर वस्त्र, सिंदूर और चंदन आदि से श्रृंगार करके उन्हें आसन पर प्रतिष्ठित किया जाता है। उनको अर्ध्य देने के बाद पंचामृत का आचमन करवाया जाता है। तत्पश्चात गणेश की पूजा की जाती है। पूजा के समय उनके चरणों में इक्कीस मोदक अर्पित किए जाते हैं। लोकमान्यता के अनुसार इस दिन रात्रि को चंद्रमा का दर्शन करना वर्जित होता है। ऐसा करने से व्यक्ति पर झूठे कलंक लगने की अवधारणा है।
व्रत कथा
एक समय सनतकुमार से नंदीकेश्वर ने कहा – ‘किसी समय भाद्रपद वदी चतुर्थी का चंद्रमा देखने से भगवान श्रीकृष्ण पर जो लांछन लगा था, वह इसी सिद्धि विनायक के व्रत के प्रताप से मिटा था।’ उनका यह कथन सुनकर सनतकुमार ने नंदीकेश्वर से पूरा वृतांत जानना चाहा। इसके बाद नंदीकेश्वर ने यह कथा सुनाते हुए कहा – ‘राजा जरासंध के भय से श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य द्वारिकापुरी बनाकर रहने लगे। इसी द्वारिका के वासी सत्यजीत यादव ने सूर्य भगवान की आराधना की। तप से प्रसन्न होकर सूर्य ने रोज आठ मन स्वर्ण पैदा करने वाली ‘श्यामंतक मणि’ उसे प्रदान की। मणि मिलने के बाद सत्यजीत इसे लेकर अपने समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने इस मणि को लेने की इच्छा जताई। पर सत्यजीत ने उन्हें वह मणि नहीं देकर अपने भाई प्रसन्नजीत को सौंप दी। एक दिन प्रसन्नजीत घोड़े पर सवार होकर वन में शिकार करने के लिए गया। वहां एक सिंह ने उसे मार दिया और उसकी मणि छीन ली। यह मणि उस सिंह के पास भी नहीं ठहरी और जाम्बवंत नामक वराह शासक ने उसे मारकर यह मणि हासिल कर ली। वह मणि लेकर अपनी मांद में घुस गया।
लंबे समय तक प्रसन्नजीत शिकार से वापिस नहीं लौटा तो परिजनों को उसकी चिंता हुई। ऐसे समय में सत्यजीत ने श्रीकृष्ण पर अपने भाई को मारने का आरोप लगाया। उसकी कही बात पूरी द्वारिका में फैल गई। इससे श्रीकृष्ण की भारी बदनामी हुई और घर-घर में उनकी निंदा होने लगी। श्रीकृष्ण तक ये चर्चाएं पहुंची तो उन्हें भी बुरा लगा कि जो अपराध उन्होंने किया भी नहीं है, वह उनके सिर पर मढ़ा जा चुका है। ऐसे में उन्होंने इन अफवाहों का मूल स्त्रोत जानने का निश्चय किया।
इस विषय पर श्रीकृष्ण गहन चिंतन करके निर्णय लिया और अपने विश्वस्त लोगों को लेकर प्रसन्नजीत को ढूंढ़ने के लिए वन में पहुंचे। वहां जाकर तलाश शुरू की। उन्हें कुछ पैरों के निशान नजर आए। पहले घोड़े के खुरों के निशान, बाद में आदमी के पदचिन्ह, फिर सिंह और अंत में रीछ के पंजों के निशान एक गुफा की तरफ जाते हुए दिखे। श्रीकृष्ण ने आव देखा न ताव और सीधे गुफा में घुस गए। वे कुछ आगे बढ़े तो उन्हें जाम्बवंत के पुत्र और पुत्री मणि से खेलते हुए नजर आए। जैसे ही जाम्बवंत ने श्रीकृष्ण को देखा तो वह दहाड़ते हुए सामने आया। कृष्ण ने भी उसे ललकारा। दोनों की जबरदस्त भिड़ंत शुरू हो गई जो देर तक चलती रही। दूसरी तरफ श्रीकृष्ण के साथ आए लोग गुफा के बाहर काफी देर तक उनकी प्रतीक्षा करते रहे। जब लंबे समय तक श्रीकृष्ण बाहर नहीं आए तो वे लोग उन्हें मृत मानकर द्वारिका वापस लौट गए।
इधर जाम्बवंत और श्रीकृष्ण के बीच गुफा में छिड़ा युद्ध इक्कीस दिन तक चलता रहा पर अनिर्णित रहा। श्रीकृष्ण के पराक्रम को देखकर जाम्बवंत को अंदाजा हो गया कि यह वही अवतारी है जिसके बारे में भगवान श्रीराम ने मुझे आगाह किया था। श्रीकृष्ण की शक्ति का अहसास होते ही जाम्बवंत ने अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ किया और वह मणि उन्हें दहेज में दी। श्रीकृष्ण ने द्वारिका लौटते ही वह मणि सत्यजीत को सौंप दी। इसके बाद सत्यजीत को अपने झूठ पर पछतावा होने लगा और उसने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ करवाकर नातेदारी स्थापित कर ली। वह मणि भी उसने अपनी पुत्री के दहेज में साथ भेजी पर श्रीकृष्ण ने वह स्वीकार नहीं की।
इसके बाद अनेक दिन बीत गए। एक दिन आवश्यक कार्य होने पर श्रीकृष्ण इंद्रप्रस्थ गए। पीछे से अपने लिए उचित अवसर मानकर सत्यधन्वा और अक्रूर ने अपने विश्वस्त सहयोगी ऋतु वर्मा की सलाह लेकर सत्यजीत को मार डाला। उन्होंने वह मणि छीन ली। यह सुनकर श्रीकृष्ण इंद्रप्रस्थ से तुरंत द्वारिका आ गए। उनके आते ही सत्यधन्वा को लगा कि अब मृत्यु निश्चित है तो उसने डर के मारे अपना मणि और राजपाट अक्रूर को सौंप दिया। वह द्वारिका छोड़कर भागने लगा तो श्रीकृष्ण ने उसे पकड़ लिया और मार डाला पर उसके पास मणि नहीं मिली। थोड़ी देर बाद बलराम वहां पहुंचे तो श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि सत्यधन्वा के पास मणि नहीं मिली। बलराम को उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ और दोनों में मतभेद हो गए। बलराम नाराज होकर विदर्भ देश चले गए। द्वारिका के लोगों को भी श्रीकृष्ण पर विश्वास नहीं हुआ और वे उन्हें मणि चोर कहकर अपमानित करने लगे। जनता में यह धारणा थी कि श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई बलराम से भी छल किया है और लोभ के वशीभूत होकर वह मणि छुपा ली है। श्रीकृष्ण इन बातों से परेशान हो गए। वे गहरी चिंता में डूबे हुए थे कि तभी संयोग से नारद मुनि वहां आए। उन्होंने पूरा वृतांत जाना और श्रीकृष्ण से कहा कि आपने कभी भाद्रपद वदी चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन किया है, जिसके चलते ऐसे कलंक आप पर लग रहे हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने नारद से पूछा कि इस तिथि को चंद्रमा देखने से व्यक्ति पर कलंक लगने का असल कारण क्या है? तब नारद ने खुलासा करते हुए बताया कि एक बार ब्रह्म ने चतुर्थी का व्रत रखा जिस पर गणेश ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए। तब ब्रह्म ने उनसे वरदान मांगा कि सृष्टि का निर्माण करते समय मेरे मन में किसी भी वस्तु के प्रति मोह-भाव पैदा नहीं हो। गणेश ने उन्हें यह वर दे दिया। तभी चंद्रमा ने गणेश की विचित्र देह देखकर उनकी हंसी उड़ाई। इस अपमान से रुष्ट होकर गणेश ने चंद्रमा को श्राप दिया कि तुझे अपने रूप पर घमंड हो गया है पर आज के बाद कोई भी तुम्हारा दर्शन तक नहीं करेगा, यदि कोई देखेगा तो मुसीबत में पड़ जाएगा। इतना कहकर गणेश चले गए। इसके बाद श्राप के प्रभाव से चंद्रमा को मानसरोवर की कुमुदिनियों में अपना मुंह छुपाना पड़ा। इसके बाद लोगों को आसमान में चंद्रमा नजर आना बंद हो गया। इस संकट का निवारण करने के लिए सभी देवताओं ने ब्रह्म से अनुमति लेकर चंद्रमा के निमित्त गणेश का व्रत किया। उनके व्रत से गणेश प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि चंद्रमा भी शीघ्र ही श्राप से मुक्त हो जाएगा पर बारह महीनों में एक दिन भाद्रपद वदी चतुर्थी को चंद्रमा देखने वाले लोग संकट में पड़ जाएंगे। इस संकट का निवारण ‘विनायक चतुर्थी’ का व्रत रखने से ही हो सकेगा। गणेश का यह कथन सुनकर सभी देवता अपने-अपने स्थानों पर लौट गए और चंद्रमा भी मानसरोवर से निकलकर चंद्रलोक में आ गया।
इसके बाद श्रीकृष्ण ने कलंक निवारण के लिए यह व्रत रखा। इसके बाद द्वारिका के लोगों को उनकी बातों पर विश्वास हुआ और नाराज बलराम भी वापिस लौट आए।