एक साधु घर-घर फेरी लगाकर भिक्षा मांगा करता था। एक दिन उसने एक घर के आगे भिक्षा देने की पुकार लगाई। उस घर में केवल एक नववधू मौजूद थी। उसने साधु को न तो भिक्षा में आटा दिया और न ही रोटियां दीं। साधु को काफी गुस्सा आया और वह बड़बड़ाता हुआ वहां से निकल गया। उसे रास्ते में लकड़ियां ला रही वधू की सास मिल गई। साधु ने उसे उलाहना देते हुए कहा कि आपकी पुत्रवधू ने मुझे भिक्षा नहीं दी और बोलकर मना किया है। क्या उसे एक साधु छटांक भर आटे के लायक भी नहीं लगा? क्या जमाना आ गया है कि घर में ऐसी बहुओं का राजपाट है।
 
साधु का उलाहना सुनकर सास को क्रोध आया और वह बोली – “भला ऐसे कैसे हो सकता है? उसकी इतनी हिम्मत कि वह साधु को भिक्षा देने से मना करे। आप मेरे साथ चलिए।”
 
साधु ने वधू की सास के तेवर देखे तो वह प्रसन्न हो गया। उसने सास के सिर पर रखा लकड़ी का भारी गठ्ठर अपने सिर पर उठाया और उसके साथ रवाना हो गया। सास रास्ते भर अपनी बहू पर भड़कती रही और उसे बुरा-भला कहती जा रही थी। घर पहुंचते ही उसने साधु से लकड़ी का गठ्ठर लिया और घर में घुस गई। भीतर जाते ही बहू को आड़े हाथों लेते हुए बोली – “तुमने साधु को भिक्षा के लिए मना कैसे किया?”
 
बाहर खड़ा साधु उसकी बात सुनकर खूब प्रसन्न हो रहा था। सास लगातार वधू को झाड़ती जा रही थी। बात बढ़ते देखकर साधु भीतर आया और बोला – “अब बस भी कीजिए, यह फिर कभी भिक्षा के लिए मना नहीं करेगी।”
सास के तेवर यथावत थे। उसने साधु से कहा – “मेरे होते हुए यह मना करने वाली कौन होती है? मना करूंगी तो मैं करूंगी। मेरे जीते-जी यह मना करेगी तो इसका मुंह नोच लूंगी। जाओ महाराज, मैं भिक्षा में रोटी देना तो दूर, छटांक भर आटा भी नहीं दूंगी।”
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