हरतालिका तृतीया के व्रत का महत्त्व और व्रत विधि
हरतालिका तीज राजस्थान का बेहद लोकप्रिय पर्व है। इसे राजस्थानी संस्कृति के प्रतीक पर्वों में गिना जाता है। इस दिन कुंवारी कन्याएं और विवाहित स्त्रियां शिव-गौरी की पूजा करती हैं। दिनभर निराहार व्रत रखकर संध्या को स्नान करने के बाद् शिव-गौरी की आराधना की जाती हैं। इसके बाद विवाहित व्रतधारी स्त्रियां अपनी सास के चरण-स्पर्श करके उनका आशीर्वाद ग्रहण करती हैं। तत्पश्चात शिव-पार्वती की कथा सुनकर भोजन ग्रहण किया जाता है।

व्रत कथा
लोकमान्यता है कि यह कथा शिव ने पार्वती को पूर्व जन्म का स्मरण करवाने के लिए कही थी। यह इस प्रकार है – ‘हे गवरी! पिछले जन्म में आप पर्वतराज हिमालय की पुत्री थी। अपनी बाल्यावस्था में आपने गंगा के तट पर बारह वर्षों तक सिर के बल घोर तपस्या की थी। तप के दौरान केवल पवन का आहार किया था और अन्न के स्थान पर झाड़ियों के पत्ते खाकर क्षुधा शांत की थी। माघ महीने की भीषण ठंड, वैशाख की तपती लूओं और श्रावण मास की मूसलाधार वर्षा में भी आपकी तपस्या अनवरत चलती रही। इस कठोर तपस्या का कारण आपके पिता के समझ में नहीं आ रहा था।

एक दिन नारद मुनि आपके पिता के पास पहुंचे। उनका खूब स्वागत किया गया और उनसे आने का कारण पूछा। इस पर नारद ने बताया – ‘पर्वतराज! मुझे भगवान विष्णु ने भेजा है। वे आपकी पुत्री की कठोर तपस्या से बड़े प्रभावित हैं और उससे विवाह करना चाहते हैं।’ यह सुनकर राजा हिमालय ने कहा – ‘यदि भगवान विष्णु मेरी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं तो यह हमारे लिए सौभाग्य होगा।’

पिता के इस फैसले की जानकारी मिलते ही आप बड़ी दुखी हुईं। आपने मन की पीड़ा एक सखी के साथ साझा की और कहा कि मैंने तपस्या के दौरान शुद्ध अंत:करण से शिव को अपना वर मान लिया है। अब मेरे पिता विष्णु के साथ मेरा विवाह करवाना चाहते हैं, सो मैं धर्मसंकट में पड़ गई हूं। मुझे प्राण त्यागने के अलावा कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है। वह सखी बड़ी समझदार थी और उसने आपको समझाते हुए कहा – ‘आत्महत्या करना मनुष्य जीवन के प्रति अपराध है। इस पाप से सारी तपस्या व्यर्थ चली जायेगी। सो तुम धैर्य से काम लो। नारी-जीवन की सार्थकता इसी में है कि एक बार मन-मंदिर में पति-परमेश्वर का वरण करने के बाद इस संबंध को जीवनभर निभाया जाए। तुम निष्ठापूर्वक शिव का ध्यान लगाती रहो। तुम्हारी तपस्या निर्विघ्न सम्पन्न करवाने के लिए मैं तुम्हें एक निर्जन स्थान पर ले चलूंगी, जहां तुम्हारे पिता तो क्या, कोई पक्षी तक नहीं पहुंच सकेगा।’

इसके बाद आप उस सखी के साथ निर्जन स्थान पर चली गईं। आपके पिता बड़े चिंतित हुए। वे सोच रहे थे कि पता नहीं, पार्वती कहां चली गई? यहां मैं भगवान विष्णु को अपनी पुत्री का विवाह करवाने का वचन दे चुका हूं। यदि यह वचन नहीं निभा पाया तो वे क्रुद्ध हो सकते हैं। ऐसे में मेरी बड़ी बदनामी होगी। हिमालय नरेश आपकी तलाश करते-करते थक गए। दूसरी तरफ आप उस सखी के साथ एक अंधेरी गुफा में तपस्यारत थीं। इस दौरान भाद्रपद माह आया तो उसकी सुदी तीज के दिन हस्त-नक्षत्र का सुखद संयोग बैठ रहा था। उस दिन आपने मिट्टी का शिवलिंग बनाकर व्रत रखा और पूरी रात शिव की स्तुति करती रही। ऐसी निष्ठापूर्वक स्तुति के प्रभाव से मेरा आसन डगमगाने लगा और मेरी तंद्रा भंग हो गई। इसके बाद मैंने आपको दर्शन देकर मनचाहा वर मांगने को कहा। मेरी बात सुनकर आपने कहा कि मैंने हृदय से आपको पति रूप में स्वीकार किया है। अब यदि आप वर देना चाहते हैं तो मुझे पत्नि के रूप में स्वीकार करें। आपकी बात सुनकर मैंने वर प्रदान करते हुए ‘तथास्तु’ कहा।

अगली सुबह आपने पूजा की समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित करके सहेली के साथ उस स्थान से प्रस्थान किया। संयोग से राजा हिमालय भी आपकी तलाश करते हुए वहां आ पहुंचे। आपने उनको सारा वृतांत सुनाने के बाद् कहा कि आपने नारद के कहने पर मेरा विवाह विष्णु के साथ तय किया था पर मैं पहले ही शिव को अपना पति मान चुकी थी। अब मैं इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह शिव के साथ ही करवाएंगे। आपकी यह शर्त पर्वतराज को स्वीकार करनी पड़ी। घर आने के बाद आपका विवाह मेरे साथ सम्पन्न हुआ। आपको भाद्रपद सुदी तृतीया का व्रत रखने के प्रतिफल में पति के रूप में मैं मिला। इस हेतु मैं कुंवारी कन्याओं को इस दिन व्रत रखने पर मनचाहा वर मिलने का आशीर्वाद देता हूं।’

इस व्रत को ‘हरतालिका’ इसलिए कहा जाता है कि पार्वती की सखी उसे हरकर जंगल में ले गई थी। इसे ‘बूढ़ी तीज’ और ‘बड़ी तीज’ भी कहा जाता है। इस दिन कुंवारी कन्याएं मनोवांछित वर पाने और सुहागन स्त्रियां अखंड सौभाग्य की कामना से व्रत रखती हैं। यह कथा सुनने के बाद यह कहा जाता है – ‘हे भोलेनाथ! जिस तरह पार्वती की मनोकामना पूरी हुई, उसी प्रकार हमारी भी मनोकामनाएं पूरी हों।

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