एक शातिर चोर के सभी परिजन धीरे-धीरे मरते गए। जब अंतिम सदस्य की मौत हुई तो चोर के ह्रदय में सांसारिक मोहमाया के प्रति वैराग्य भाव जाग उठा। उसने भावी जन्म सुधारने के लिए भक्ति करने का प्रण किया और एक साधु के चरणों में जाकर नतमस्तक हो गया। उसने साधु से कहा – “महाराज! मेरा यह जन्म चोरी-चकारियों में बीत गया। ऐसे पाप कर्मों के कारण यह जन्म तो बर्बाद हो गया पर मेरे अगले जन्म संवर जाएं, इसका मार्ग मुझे सुझाएं! गुरु के बिना यह असंभव है, सो कृपा करके अपना शिष्य बनाकर मेरा जीवन सुधार दें।”

साधु को उस पर दया आ गई और उसे अपना शिष्य बना लिया। चोर को साधु के आश्रम में शरण मिल गई।

आश्रम में अकूत धन के साथ दुधारू पशु भी थे। दैनिक कार्यों और भोजन बनाने में काम आने वाली सब सामग्री और बर्तन-भांडे मौजूद थे। गृहस्थ जीवन की सब सुविधाएं आश्रम में आसानी से मिल रही थी। चोर के तो मौज हो गई। अपने जीवन में इतनी चोरियां करने के बाद भी वह कुछ नहीं जुटा सका था।

अब वह चोरी छोड़ चुका था पर वह पुरानी आदत के चलते आश्रम की चीजों को इधर-उधर करता रहता था। जब-जब चोरी की इच्छा प्रबल होती तो वह आश्रम के बर्तन-भांडों को यहां-वहां करके मन को शांत कर लेता। दूसरे शिष्य अस्त-व्यस्त बर्तनों को पुन: यथास्थान रखते।

वे चोर की इस आदत से परेशान चुके थे। उन्होंने महंतजी से शिकायत की। महंतजी ने चोर को बुलाया और समझाते हुए कहने लगे – “भाई! सब लोग तुम्हारी शिकायत करते हैं, तुम जमी-जमाई चीजों को इधर-उधर क्यों करते हो! आश्रम के तमाम शिष्य तुम्हारी इस हेराफेरी से तंग आ चुके हैं।”

चोर महंतजी के चरण छूते हुए कहने लगा – “गुरुजी! अब आप ही न्याय कीजिए कि चोर चोरी से गया वो तो ठीक, पर हेराफेरी से भी गया! पुरानी आदत है, चोरी तो छूट गई पर हेराफेरी नहीं छूटेगी!”
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