राजस्थानी लोकनाट्यों में ‘रम्मत’ का विशिष्ट स्थान है। इनकी शुरुआत तकरीबन सौ-सवा सौ वर्ष पहले हुई थी। इनका उद्भव होली और सावन के अवसर पर होने वाली काव्य प्रतियोगिताओं से हुआ था। इनमें बीकानेर में आयोजित होने वाली लोक-काव्य प्रतियोगिताओं का अग्रणी स्थान रहा है। यहां के कुछ लोककवियों ने राजस्थान के प्रसिद्ध लोकनायकों एवं महापुरुषों के जीवन पर आधारित काव्य रचनाओं का सर्जन किया था। ये इतनी लोकप्रिय हुईं कि इन्हें रंगमंच पर मंचित किया जाने लगा। यह नाट्य-रूपांतरण ‘रम्मत’ नाम से जाना गया। इन रम्मतों के रचयिताओं में मनीराम व्यास, तुलसीराम, फागू महाराज, सुआ महाराज, तेज कवि (जैसलमेर) आदि प्रमुख हैं।

जैसलमेर के तेज कवि रंगमंच के नामी अभिनेता भी थे। उन्होंने सन 1943 में ‘स्वतंत्र बावनी’ की रचना करके उसे महात्मा गांधी को भेंट किया था। इसके बाद तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ वारंट भी जारी किया था। इस उदाहरण से सिद्ध होता है कि रम्मत के खिलाड़ी केवल मनोरंजन करने तक ही सीमित नहीं रहकर अपने सामाजिक सरोकार भी भली-भांति निभाते थे।

रम्मत काफी लोकप्रिय लोकनाट्य है जिसकी कुछेक विशेषताएं इस प्रकार हैं – रम्मत शुरू होने से पहले ही इसके मुख्य कलाकार मंच पर आकर बैठ जाते हैं ताकि दर्शक उनकी वेशभूषा और मेकअप देख सकें। रम्मत के संवाद मंचासीन गायकों द्वारा गाए जाते हैं। मुख्य चरित्र उन गायकों द्वारा गाए जाने संवादों को नृत्य और अभिनय करते हुए प्रस्तुत करते हैं। रम्मत में वाद्यों  के रूप में नगाड़े और ढोलक का इस्तेमाल किया जाता है। इस नाट्य को मंचित किए जाने वाले मंच पर कोई खास साज-सज्जा नहीं की जाती, यह केवल धरातल से थोड़ा ऊंचा होता है। रम्मत में गाए जाने वाले गीतों में वर्षा ऋतु के वर्णन, लावणी, देवी-देवताओं की स्तुति से जुड़े गीत, गणपति वंदना आदि मुख्य हैं। रम्मत शुरू करने से पहले लोकदेवता बाबा रामदेव का भजन गाया जाता है।

रम्मत की गिनती लोकनाट्यों में की जाती है पर यह साहित्यिकता से भी भरपूर होता है।  रम्मत के कुछ खिलाड़ियों ने काफी ख्याति हासिल की है जिनमें रामगोपाल मेहता, सांई सेवग, गंगादास सेवग, सूरज, काना सेवग, जीतमल और गींडोजी आदि प्रमुख हैं। उक्त सभी कलाकार बीकानेर के रहने वाले हैं। बीकानेर के अलावा पोकरण, फलौदी, जैसलमेर और आसपास के क्षेत्रों में भी रम्मत लोकनाट्य बड़े पैमाने पर मंचित किया जाता है। इन्हीं रम्मतों में ‘हेड़ाऊ मेरी री रम्मत’ बेहद लोकप्रिय रम्मत है। इसके अलावा पूरण भगत, मोरध्वज, डूंगजी-जवाहरजी, राजा हरिश्चंद्र और गोपीचन्द-भरथरी आदि रम्मतें समय-समय पर खेली जाती हैं।

इसके अलावा राजस्थान में ‘रम्मत’ नाट्य का एक अन्य रूप ‘रावळों की रम्मत’ भी काफी लोकप्रिय है। रावळ राजस्थान में रहने वाली एक जाति है जो चारण जाति की यजमान होती है। ‘रावळों की रम्मत’ में राजस्थान में निवास करने वाली विभिन्न जातियों के स्वांग प्रदर्शित किए जाते हैं जो रात-भर चलते हैं। रावळ अपनी रम्मतों का प्रदर्शन केवल चारणों के गांवों में ही करते हैं। ये लोग नकल (अनुकरण) करने में माहिर होने के साथ-साथ पात्रों एवं प्रसंगों के अनुरूप भाषा का अनुकूल प्रयोग करने में भी निपुण होते हैं।

‘रावळों की रम्मत’ में मंचित किए जाने वाले स्वांगों में हास्य और कटु वचन समाहित रहते हैं। यह रम्मत देखने के लिए हजारों की संख्या में दर्शक एकत्र होते हैं। हास्य और व्यंग्य से भरपूर होने के बावजूद भी इस रम्मत में तनिक भी भोंडापन और अश्लीलता का प्रदर्शन नहीं होता है। ‘रावळों की रम्मत’ का उद्देश्य दर्शकों का नैतिक उत्थान की भावना से भरा होता है। इसी मर्यादित मंचन के कारण इस रम्मत को स्त्रियां भी देखने के लिए आती हैं।

‘रावळों की रम्मत’ में अनेक स्वांग खेले जाते हैं जिनका क्रम निर्धारित रहता है। रम्मत में सबसे पहले ‘बौरे-बौरी का स्वांग’ खेला जाता है। इसके बाद अधनारी का स्वांग, मींयै का स्वांग, बनिये का स्वांग, दर्जी का स्वांग, मेणे का स्वांग, जोगी का स्वांग, सूरदास का स्वांग, कान-गुजरी का स्वांग, बीकोजी का स्वांग आदि क्रमवार खेले जाते हैं।

‘बौरे-बौरी का स्वांग’ में नृत्य की प्रधानता रहती है। इसमें एक पात्र ‘बौरा’ बनता है और दूसरा ‘बौरी’ बनता है। इसमें लयात्मक वाक्यों को गा-गाकर नृत्य किया जाता है। ‘अधनारी के स्वांग’ में एक पात्र अर्द्धनारीश्वर का रूप धारण करके अपने हाथ में तलवार लेकर दर्शकों के सामने आता है। यह स्वांग धार्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें देवी को समर्पित ‘चिरजाएं’ गाई जाती हैं। इस गायन के दौरान नृत्य भी चलता रहता है। स्वांग करने वाला पात्र अपनी तलवार घुमाता रहता है। उसके शरीर के आधे भाग में पुरुष पहनावा और आधे में स्त्री का वेश होता है। यह भूमिका निभाने वाला पात्र बेहद निपुण होता है। यह स्वांग अर्द्धनारीश्वर शिव को समर्पित होता है।

इस स्वांग के बाद ‘मींयै का स्वांग’ खेला जाता है। यह हास्य-प्रधान स्वांग है। इस स्वांग में पात्रों की वेशभूषा, हाव-भाव और क्रिया-कलाप दर्शकों को हंसा-हंसाकर लोट-पोट कर देते हैं। सफेद खड़िया से पुते हुए मुख वाला एक पात्र सबके आकर्षण का केंद्र होता है। वह धनुष-बाण और लोटा लेकर अपना स्वांग करता रहता है।

‘सेठ के स्वांग’ खेल में वणिक वर्ग की कंजूसी पर मर्यादित व्यंग्य किया जाता है। ‘दर्जी के स्वांग’ में बेमेल विवाह की बुराई पर प्रहार किया जाता है। बूढ़ा हो चुका दर्जी एक नवयौवना से विवाह करता है जो किसी दूसरे से प्रेम करती थी। इस स्वांग में बेमेल विवाह की बुराई के प्रति समाज को सावचेत किया जाता है। इसी तरह ‘जोगी के स्वांग’ में मध्यकालीन समाज का यथार्थ चित्रण मिलता है। ‘रावळों की रम्मत’ में सबसे अंतिम खेल के रूप में ‘बीकोजी का स्वांग’ खेला जाता है। इसमें बीका नामक मध्यकालीन धाड़वी और उसकी प्रेमिका रतना की कथा को मंचित किया जाता है। यह स्वांग श्रंगार रस के पदों से भरपूर है।

रावळों की रम्मत के बारे में यह उल्लेख योग्य है कि रावळ लोग राजस्थान की लगभग सभी जातियों का अभिनय करते हैं पर ‘रावळों की रम्मत’ किसी भी खेल में चारण जाति का स्वांग मंचित नहीं किया जाता। रावळों की रम्मत में गीत-संगीत और नृत्य का बेहतरीन मेल देखा जा सकता है। बीच-बीच में गद्य के संवाद दर्शकों को बांधे रखते हैं। रम्मत नाट्य में वाद्यों के वादन का खास तरीका होता है। इसे मंचित करने के लिए किसी खास प्रकार की सजावट वाले मंच की जरूरत नहीं पड़ती है। रम्मत को जमीन पर दरी बिछाकर ही मंचित किया जा सकता है। स्वांग रचने वाले पात्र अपनी भूमिका की सज्जा मंच के आसपास के किसी भी कमरे में जाकर कर लेते हैं। रम्मत में स्त्रियों की भूमिका भी पुरुष पात्र ही निभाते हैं। वस्तुत: रम्मत लोकनाट्य का लोकानुरंजन में खास महत्त्व है।

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