राजस्थानी लोकगीतों में ‘लोरी गीतों’ की विशिष्ट परंपरा रही है। इन लोकगीतों में मां की ममता और वात्सल्य भाव के साथ ही संतति के साथ उसके जुड़ाव की झलक दृष्टिगत होती है। ‘लोरियां’ स्तनपान करने वाले अल्पवय बालक और बालिकाओं को सुलाने के लिए ममत्व एवं प्रेम से भरे स्वरों में गाकर सुनाई जाती हैं। यहां ‘लोरी’ लोकगीत का एक उदाहरण प्रस्तुत है जिसमें स्तनपान कर रहे शिशु को उसकी माता विभिन्न प्रकार के पौराणिक एवं लौकिक उदाहरण गीत के माध्यम से सुना रही है—
‘लोरी लोरी लाल नै, मदन गोपाल नै
गोप्यां रै कांन नै, लंका रै हड़मांन नै
आधै-भोळै स्यांम नै, अजोध्या रै रांम नै
म्हारौ लालौ सोवै, सोनै री माळा पोवै
म्हारौ गीगौ जागै, सोनै री माळा पागै
सोई रै बाळा एक घड़ी, तनै जिमावूं सीरौ पूड़ी
सीरौ-पूड़ी सिरावण रा, दोवटिया दोफारै रा।’
राजस्थानी लोकजीवन में ऐसी विविध लोरियों का मातृ लोक में काफी प्रचलन रहा है। अल्पवय बालक-बालिकाओं को पालने में सुलाते समय भक्ति, नीति एवं वीरता की शिक्षा देने वाली अनेक लोरियां सुनाई जाती हैं। वस्तुत: मातृ लोक द्वारा रचे गए इस लोक साहित्य का बालकों के चरित्र और संस्कार निर्माण में अतुलनीय योगदान रहा है।
‘लोरी गीतों’ में ‘हालरिया’ संज्ञक गीतों का महत्वपूर्ण स्थान है जो शिशु को पालने में सुलाते समय गाकर सुनाए जाते हैं। ‘हालरिया’ में शिशु को तरह-तरह के आभूषण, वस्त्र आदि बनवाकर देने के साथ खाने-पीने की विविध सामग्री आदि लाकर देने का प्रलोभन दिया जाता है। इनमें बाल वय का मनोविज्ञान भरा हुआ है। यहां एक लोरी का अंश प्रस्तुत है जिसमें बालक को वस्त्राभूषण लाकर देने भरोसा दिया जा रहा है—
‘थारै झुगली टोलियां सींवाड़ूं
गीगलिया रोवतड़ौ ढब जाई
थारै हांयली कड़ौलिया घड़ावूं
गीगलिया रोवतड़ौ ढब जाई।’
बालकों को पक्षियों आदि से खिलौनों की भांति लगाव होता है। उनके इसी मनोविज्ञान को लोरी गीतों में अनेक जगह स्थान मिला है। यहां लोरी गीत का एक अंश प्रस्तुत है जिसमें चिड़िया से शिशु का मन बहलाने का आग्रह किया जा रहा है—
‘गीगा नै हंसाई ऐ चिड़कली
गीगा नै खिलाई ऐ
पगां तांही बांधूं घूघरणा थारै
गळ मोतीड़ां रो हार ऐ चिड़कली
गीगा नै खिलाई ऐ
चांचड़ली थारै हिंगळू ढोळूं
पांखड़ल्यां रंग केसर ऐ चिड़कली।’
राजस्थानी लोक में कन्याओं के लिए ‘धीवड़’ अथवा ‘धीया’ शब्द प्रचलित है। शिशु कन्याओं को भी उनकी माता और दादी बड़े लाड़ के साथ लोरियां सुनाती हैं। इन लोरियों में स्त्रियों का मनोविज्ञान भरा पड़ा है। यहां ऐसी ही एक लोरी का अंश प्रस्तुत है जिसमें शिशु कन्या का विवाह खूब सारा धन और आभूषण देकर करने का वर्णन है—
‘लोरी बाई लोरी, गाय ब्याई गौरी
दूध भरी कटोरी, ऊपर सक्कर भौरी
इण राजबहिन रै कारणै, दो साजन आया बारणै
काकलिया कनै ही नहीं, मामलिया मनै ही नहीं, मां रौ नाक नवै ही नहीं,
भूवा कवै भतीजी देस्यां, पण गहणा घणा रेस्तरां।
सेर सोनौ लो, थारी बाई म्हांनै दो।
सेर सोनौ बाळां, म्हारी धीवड़ नीं दिखाळां।’
अनेक लोरी गीत ऐसे भी हैं जिनमें बालक को घर से बाहर नहीं जाने अथवा बालवय की शैतानियां नहीं करने के लिए काल्पनिक भय के माध्यम से डराया जाता है। यहां ऐसी ही लोरी का अंश इस प्रकार प्रस्तुत है—
‘बाई ऐ बाई तूं बारै मती जाई,
थारै सोनै रा केस कतर लेली काई,
बाई ऐ बाई तूं बारै मती जाई,
थारा झबरक झूंटणा तोड़ लेली काई,
बाई ऐ बाई तूं बारै मती जाई,
थारै साळूड़ै री कोर कतर लेली काई।’
इस प्रकार ‘लोरी गीतों’ का लोकजीवन में बड़ा महत्व है। लोकगीतों का यह साहित्य अनपढ़ और गांवांई जीवन जीने वाले मातृ लोक द्वारा रचा गया है पर इनमें बालवय की मनोस्थिति, इच्छाओं और मनबहलाव के तौर-तरीकों को बेहतरीन ढंग से समाहित किया गया है। लोरी गीत मां के अपने शिशु के प्रति वात्सल्य, ममता और स्नेह की सुरीली निधि हैं।