फड़

राजस्थानी लोकनाट्यों में फड़ अथवा पड़ काफी लोकप्रिय है। यह वस्तुत: चित्रांकन आधारित लोकनाट्य है। माना जाता है कि भाषा का आरंभिक स्वरूप चित्रात्मक था और चित्र उकेरकर संवाद प्रेषण एवं भावाभिव्यक्ति की जाती थी। सबसे पहले वृक्ष की छाल, उसके बाद के ऋग्वेद और अन्य वेदों में भी ऐसा  उल्लेख मिलता है। यज्ञों में वस्त्रचित्रों का प्रयोग होता था। बाद में बुद्ध की जीवनी का प्रचार-प्रसार पटचित्रों के माध्यम से किया गया। धीरे-धीरे इन चित्रों का चलन बढ़ता गया और इन्हें बनाने वाले लोग एक जाति विशेष के नाम से पहचाने जाने लगे।

ईसा की पहली शताब्दी आते-आते यह कला इतनी विकसित हो गई कि लोक-प्रचलित अनेक घटना-प्रसंगों को इसका विषय बनाया जाने लगा। ये चित्र इतने आकर्षक थे कि इन्हें दीवारों पर भी लगाया जाने लगा। गुप्तयुग से लेकर मध्ययुग तक चित्रपट कला उतरोत्तर लोकप्रिय होती गई।
चलित है। इसकी यह विशेषता है कि यह केवल चित्रांकन मात्र नहीं है अपितु इसे ‘नाट्य’ की भांति खेला जाता है।

राजस्थानी लोकदेवता पाबूजी और देवनारायण की पड़ें सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। ये विशिष्ट पड़ें मानी जाती हैं। अन्य पड़ों में रामदला, कृष्णदला, भैंसासुर, रामदेव आदि उल्लेखयोग्य हैं पर ये विस्तृत नहीं होकर पड़ों के लघुरूपांश कहे जा सकते हैं। लोकमान्यता है कि सबसे पहले देवनारायणजी की पड़ बनी। किवदंती है कि नरवरगढ़ के राजा ने अपनी पुत्री जैवंती की सगाई करने के लिए पुरोहितों को भेजा। पुरोहित जगह-जगह भटके पर सगाई नहीं हो सकी। इसके बाद जैवंती ने पुरोहितों को अपने पास बुलाया और चौबीस बगड़ावत भाइयों का रेखांकन देते हुए कहा कि जहां भी ये चौबीस भाई हों, वहां जाकर मेरी सगाई कर आना। कहा जाता है कि इसी रेखांकन से ‘पड़’ की परंपरा आरंभ हुई।

फड़ वस्तुत: चित्रात्मक कथावली होती है। कई चित्रों के सम्मिलित रूप को फड़ें कहा जाता हैं। यही फड़ शब्द ‘पड़’ के रूप में प्रचलित हुआ। फड़ एवं पड़ के अलावा एक शब्द ‘पड़ी’ भी पड़गाथा और वारता में मिलता है। किवदंती है कि एक बार पाबूजी के बड़े भाई की पुत्री केलम को सांप डस लेता है तो उसका जहर उतारने के लिए झाड़-फूंक करने वाले झाड़ागर को बुलाया गया। झाड़ागर ने प्रार्थना करते हुए कहा कि यदि केलम का जीवन बच जाए तो मैं नौ कुली वाले सर्प की धरती पर ‘पड़ी’ का वाचन करूंगा।

पड़ केवल चितराम मात्र नहीं है अपितु देवस्वरूपा है, इसलिए पड़ बनाने वाला और बांचने वाला दोनों ही इसे पवित्र मानते हैं। पड़ बनाने वाली छींपा जाति का चित्रकार किसी कुंवारी कन्या से रेखांकन करवाकर पड़ का चित्राम उकेरता है। पड़ बांचने वाला भोपा पड़ को एक बार खोलने के उपरांत उसे पूरी करने से पहले बंद नहीं करता है। पड़ को घर में पवित्र स्थान पर रखा जाता है और उसकी प्रतिदिन आराधना की जाती है।

फड़

राजस्थानी लोकजीवन में ‘पाबूजी की पड़’ सर्वाधिक प्रचलित है। पाबूजी राजस्थान में लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं। उनके असाधारण पौरुष और वचनबद्धता के प्रसंगों को लेकर अनेक कथाएं लोकप्रचलित हैं। पाबू को लक्ष्मण का अवतार माना जाता है। उनके जीवनवृत को इस पड़ के माध्यम से मंचित किया जाता है। किसान वर्ग अपने पशुधन की रक्षा के लिए पाबूजी की पूजा करता है और उनकी पड़ को पशुओं के बाड़े में समय-समय पर बंचवाया जाता है। जिस दिन पड़ बंचवानी होती है तो भोपे को न्यौता दिया जाता है। पड़ बंचवाने वाला अपने परिचितों और सगे-संबंधियों को पड़ के लिए आमंत्रित करता है। पड़ में अंकित चित्रों का संयोजन गाथा के अनुसार क्रमबद्ध नहीं होता है। भोपा और भोपिन पड़ के खुलते जाने पर उसकी प्रसंगवार प्रस्तुति करते हैं। पाबूजी की पड़ में भोपा रावणहत्थे को बजाते हुए प्रसंगानुसार चित्रों को छूता हुआ गाता रहता है। भोपी भी उसकी गायकी में साथ देने के साथ नृत्य भी करती है। परंपरागत वेशभूषा में सजी भोपी जब भोपे द्वारा उच्चारित पवाड़े को अपना कोकिल स्वर देती है तो समूचा वातावरण सरस हो उठता है। भोपा रावणहत्थे पर घुंघरू लगे गज की धमक देता हुआ नाचने, बजाने और गाने की तीनों क्रियाओं की अदायगी में ऐसा रंग भरता है कि उससे एक नहीं अपितु कई पात्र मिलकर मंच पर कोई नाट्य प्रस्तुत करते हुए लगते हैं। भोपिन हाथ में लिए दीपक को प्रसंग के अनुसार पड़ के चित्रों के पास ले जाती रहती है। इससे प्रसंग बड़ा सजीव और चलायमान लगता है।

पड़ में दर्शकों की रुचि बनाए रखने के लिए भोपा कभी-कभी प्रसंग से इतर वर्णन करके दर्शकों को चौंका देता है। पड़ में प्रसंगानुसार गायन की रागें बदलती रहती हैं। करूण, रौद्र, भयानक और वीरता के प्रसंगों में रागें विषय के अनुसार होती है जिससे दर्शक रोमांचित हो उठते हैं। पाबू की पड़ में युद्ध-प्रसंग का दृश्य मंचित करते समय की राग ऐसी होती है कि देखने वाले लोगों की भुजाएं फड़कने लगती हैं। इसी प्रकार जब पाबूजी तीन फेरों के बाद गायों की रक्षा हेतु दिए गए वचन को निभाने के लिए रवाना होते हैं तो उनकी ब्याहता फूलमदे सोढ़ी के विलाप के दृश्य के मंचन से दर्शकों की आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

पड़ के चित्रों में अंकित हरेक पात्र प्रस्तोता के अभिनय, क्रिया-कलाप, संवाद, वाचन आदि के माध्यम से जीवंत हो उठता है। पड़ के पात्रों के चितराम अनूठे रंग-संयोजन से उकेरे जाते हैं। पड़ में ठहराव जैसा माहौल कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। रंगों का यह संयोजन विशिष्ट है जिसमें देवी पात्रों के मुंह नीले, देव पात्रों के लाल, राक्षस आदि के काले और सात्विक पात्रों के सफेद-नीले होते हैं। वस्तुत: पाबूजी की पड़ में गीत-संगीत, नृत्य, अभिनेयता और चित्रांकन का अनूठा मिश्रण देखा जा सकता है।

फड़

पाबूजी की पड़ के अलावा राजस्थान में देवनारायणजी की पड़ काफी लोकप्रिय है। यह पड़ तेरह हाथ से लेकर पच्चीस हाथ तक लंबी होती है। इसमें सबसे अधिक चित्र होते हैं। देवजी की पड़ को मुख्यत: गुर्जर जाति के लोग बांचते है। इनके अलावा राजपूत, गाडरी और बलाई जाति के भोपे भी इसका वाचन करते हैं। इस पड़ में जंतर वाद्य बजाया जाता है। इसे दो या तीन भोपे मिलकर बांचते हैं। जंतर के साथ कई बार मंजीरा और चिमटा भी बजाया जाता है।

राजस्थान में लोकदेवता रामदेव की पड़ भी प्रचलित है। इस पड़ में रामदेवजी के जन्म से लेकर उनके समाधि लेने तक की कथा का वर्णन किया जाता है। इसे भोपा और भोपी मिलकर बांचते हैं। वाद्ययंत्र के रूप में रावणहत्था काम में लिया जाता है। यह पड़ हाड़ौती, मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्र में प्रचलित है। विवाह-शादी और अन्य कार्यों के अवसर पर यह पड़ बांची जाती है।

इनके अलावा रामदला और कृष्णदला की पड़ भी प्रचलित हैं जो आकार में काफी छोटी होती हैं। बावरी और बागरी जाति में ‘भैंसासुर की पड़’ का चलन है। इस पड़ का वाचन नहीं किया जाता। पुराने जमाने में इन जातियों के लोग चोरी आदि करने निकलते तो इस पड़ का पूजन करके जाते थे। इसे ‘माताजी की पड़’ भी कहा जाता है।
इस प्रकार पड़ लोकनाट्य का लोकजीवन के अनुरंजन में बड़ा महत्त्व रहा है। पड़ गीत-संगीत और नृत्य के साथ अनूठे चित्रांकन का बेहतरीन मिश्रण है। राजस्थानी लोकनाट्यों में पड़ का विशिष्ट स्थान है।

फड़                     
जुड़्योड़ा विसै