आदिकाल से मानव अपने आनंद के क्षणों में अंग भंगिमाओं का अनियोजित प्रदर्शन करता आया है, मानव का यह स्वाभाव समष्टि रूप में आयोजन बनकर लोक नृत्यों के रूप में सामने आया, काल की विभिन्न सीमाओं में प्रत्येक वर्ग, जाति और क्षेत्र के लोक नृत्यों की परम्परा का उद्भव एवं विकास होता चला आया। यह नृत्य प्राय: विषयों से रहित होते हैं, इनमें न तो मुद्राएँ निर्धारित होती हैं और न ही अंगों का निश्चित प्रदर्शन। ये नृत्य सहृदय ग्रामीणों की उल्लासपूर्ण अभिव्यक्ति के प्रमुख साधन होते हैं, इसलिए इन्हें ‘देशी नृत्य’ या ‘लोक नृत्य’ के रूप में पहचाना जाता है, राजस्थान जातीय, क्षेत्रीय एवं वर्गीय विभिनताओं से भरा हुआ प्रदेश है, फलस्वरूप यहाँ अनेक लोक नृत्यों का पोषण हुआ, राजस्थानी लोक नृत्यों में मानव जीवन के संघर्षों का यथार्थ चित्रण मिलता है।
राजस्थान के लोक नृत्य - लोक नृत्यों का वर्गीकरण निम्न तीन आधारों पर किया जाता है—
क्षेत्रीय लोक नृत्य - इसमें क्षेत्र विशेष के नृत्य आते हैं, जैसे— गैर नृत्य (मारवाड़, मेवाड़), गींदड़ नृत्य (शेखावाटी), बम नृत्य (अलवर भरतपुर) जातीय लोक नृत्य - इसमें जनजाति, घुमंतू एवं अन्य जातियों के नृत्य आते हैं। जैसे— भीलों का गवरी नृत्य, कालबेलिया नृत्य, जसनाथी सिद्धों का अग्नि नृत्य आदि।
व्यावसायिक लोक नृत्य - लोक कला का प्रदर्शन जब जीविका का साधन बन गया तो व्यावसायिक लोक नृत्यों का उद्भव हुआ, व्यावसायिक लोक नृत्यों में जो मूलाधार दृष्टिपात होते हैं वे सामुदायिक लोक नृत्यों में नहीं होते हैं। इसमें भवाई, तेरहताली लोक नृत्यों को शामिल किया जाता हैं।