प्रकृति तथा मानव-जीवन में समाहित निसर्ग के प्रति सहज आकर्षण की ललक पशुओं की तरह मनुष्य में भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। पर्वत, नदी, बादल, समुद्र, वनस्पति, रंग, नक्षत्र, चाँद, ध्वनि आदि इन प्राकृतिक उपकरणों के प्रति सहज अनुराग तथा मानवीय जगत में पुरुष की नारी के प्रति एवं नारी की पुरुष के प्रति आसक्ति; यौवन, शैशव एवं समवयस्कता के प्रति प्रेमभाव इत्यादि ये सांवेगिक भावनाएँ जन्मजात प्रवृत्तियाँ हैं। यह आकर्षण अथवा सौंदर्य, वस्तु में है या व्यक्ति में, या दोनों का परस्पर अद्वैत सम्बन्ध है — यह दर्शन-शास्त्र का विषय है। और शारीरिक-धर्म की इन मूलभूत प्रक्रियाओं की वैज्ञानिक जाँच-पड़ताल जीवशास्त्र का विषय है। हालाँकि मनुष्य के इन प्रकृतिगत रागात्मक सम्बन्धों का शिक्षा, संस्कार, संस्कृति, दर्शन, तथा परम्परा के समवेत प्रभाव द्वारा आंशिक परिवर्द्धन और उनका यत्किंचित् सामाजीकरण होता है; फिर भी इनके मूलभूत स्वरूप में विशेष परिवर्तन की संभावना नहीं बन पाती। इसलिए आज दिन भी मनुष्य की इन स्वाभाविक सौंदर्यानुभूति का जवाब जीव-विज्ञान ही के पास है। सौंदर्य-शास्त्र इस रहस्य को उद्घाटित करने में काफी-कुछ असमर्थ है। सभी विज्ञान एक दूसरे के पूरक होते हुए भी अपनी कुछ भिन्न विशेषता रखते हैं। इसलिए सौंदर्य-शास्त्र प्रकृति तथा मानव जीवन में निहित सौंदर्य का विज्ञान नहीं बल्कि कला में निहित सौंदर्य का विज्ञान है। वह सुन्दरता के नहीं — कला के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है।
इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं — कला के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले सौंदर्य-शास्त्र का जीव-विज्ञान, दर्शन-शास्त्र या मनोविज्ञान आदि अन्य विज्ञानों से कोई वास्ता नहीं। वास्ता है — और बहुत करीब का वास्ता है। कला के सिद्धान्तों की वैज्ञानिक-व्याख्या के लिए मनुष्य से सम्बन्धित जितना भी आवश्यक है—
वह सब हमें विस्तारपूर्वक जानना पड़ेगा। क्योंकि वह मनुष्य ही है जो कला की सृष्टि करता है, कला से रस ग्रहण करता है। जिस प्रकार स्वयं मनुष्य की देह और उसकी चेतना को टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता, उसी प्रकार मनुष्य से सम्बन्धी विज्ञान व कलाओं को भी परस्पर विच्छिन्न नहीं किया जा सकता। तात्विक प्रमुखता की वजह से सभी विज्ञान एक दूसरे से भिन्न भी हैं और मानवीय समानता की वजह से परस्पर समान भी। अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए भी ये एक दूसरे से विच्छिन्न नहीं हैं। इसलिए सौंदर्य शास्त्र को केवल अपने ही में सम्पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता।
जिस प्रकार हर रंग और रेखा चित्र नहीं है, हर ध्वनि संगीत नहीं है, शरीर की हर भाव-भंगिमा नृत्य नहीं है, वस्तु की हर आकृति शिल्प नहीं है, हर शब्द साहित्य नहीं है — उसी प्रकार हर ध्वनि, हर मुद्रा, हर रंग व रेखा और हर आकृति से प्राप्त होने वाला आनन्द कला का आनन्द नहीं है। कला के आनन्द के लिए तत्संबंधी ज्ञानेन्द्रियों का माध्यम आवश्यक है, किन्तु इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाला प्रत्येक आनन्द कला नहीं है। इसलिए सौंदर्य-शास्त्र इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले प्रत्येक आनन्द, प्रत्येक रस, और प्रत्येक सौंदर्यानुभूति की व्याख्या नहीं करता।
भाषा पहिले है और व्याकरण बाद में। भाषा से आगे व्याकरण की न सीमा है और न गति। व्याकरण कोई भी ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं कर सकती — जिसका भाषा के आम-प्रचलन में स्वयं अपना अस्तित्व न हो। इसलिए स्वयं भाषा ही व्याकरण की निश्चित सीमा है। इसी प्रकार कला पहिले है और सौंदर्य-शास्त्र बाद में। कला से आगे सौंदर्य-शास्त्र की भी सीमा नहीं है। इसलिए सौंदर्य-शास्त्र कोई भी ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं कर सकता जिसका कलाओं के आम-प्रचलन में स्वयं अपना अस्तित्व न हो। अतएव स्वयं कला ही सौंदर्य-शास्त्र की निश्चित सीमा है। इतना सब कुछ होते हुए भी भाषा की व्याकरण और कला के सौंदर्य-शास्त्र दोनों में एक मूलभूत फर्क है। कला के प्रतीकों से भाषा के प्रतीक अर्थात् शब्द अधिक पूर्ण और स्पष्ट हैं — इसलिए व्याकरण भी सौंदर्य-शास्त्र से अधिक पूर्ण और स्पष्ट है। भाषा का दायरा कलाओं से बहुत अधिक व्यापक है। उसके बिना तो मनुष्य और समाज का जीवन ही असम्भव है — किन्तु कला एक विशेष आनन्द है। उसका क्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित है। उसकी अनिवार्यता केन्द्रित है। व्याकरण विज्ञान-सम्मत और पूर्ण है, इसलिए अपेक्षाकृत रूढ़ और परिवर्तन-शून्य है। सौंदर्य-शास्त्र असंपूर्ण और अस्पष्ट है फिर भी गतिशील और विकासजन्य है। उसके सिद्धान्तों में परिवर्तन होता रहता है।
प्राकृतिक इन्द्रियों से जो प्रतीति होती है यदि वही ज्ञान है तो फिर ज्ञान के विकास का प्रश्न ही व्यर्थ है। इन्द्रियों का यह प्रत्यक्ष बोध तो आदिम-मानव में भी ऐसा ही था — पशुओं में भी वही है। शारीरिक विकास को पूर्णतया हासिल करने के बाद ही मनुष्य के मानसिक जीवन की कहानी प्रारम्भ होती है। केवल मात्र ज्ञानेन्द्रियों के जरिये जब तक आदिम मनुष्य वस्तु-जगत से सम्पर्क स्थापित करता रहा, तब तक उसका जीवन पशुवत् ही रहा होगा। ठीक पशुओं ही की तरह ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जैसा जो कुछ भी प्रतीत होता था, वही उसका ज्ञान था। इन्द्रियों का प्रत्यक्ष-बोध ही उसकी वास्तविकता थी। इन्द्रियानुभूति और उसकी अंतश्चेतना में कोई अन्तर नहीं था। किन्तु भाषा के रूप में उन सामाजिक अर्थ-संकेतों से आदिम-मानव के इन्द्रिय-बोध में एक गुणात्मक परिवर्तन आया। पहिले उसे जैसा जो कुछ भी प्रतीत होता था — वही उसका ज्ञान था, वही उसकी चेतना थी। लेकिन तत्पश्चात् इन सामाजिक प्रतीकों की सृष्टि के कारण उसके अंतर्मन में अतिरिक्त चेतना का निर्माण हुआ। तब वह सामाजिक चेतना के द्वारा इन्द्रियों के माध्यम से अनुभूति ग्रहण करने लगा। उसकी इन्द्रियों का मानवीकरण हो गया। चेतना और ज्ञान के प्रकाश से उसे प्रतीति होने लगी। चेतना के नियन्त्रण से ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति बढ़ी — ज्ञानेन्द्रियों की विकसित शक्ति से चेतना व ज्ञान का और अधिक विकास हुआ। ज्ञान के विकास ने ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति को पुनः प्रभावित किया। यह अविच्छिन्न क्रम निरंतर चलता रहा। इस क्रम की मूल प्रेरक-शक्ति थी — मनुष्य की वाणी जो स्वयं भी निरन्तर विकसित होती रहती थी। वाणी के विकास ने मनुष्य के सम्यक जीवन को प्रभावित किया। उसका मध्यवित्ति-स्नायु-केन्द्र विकसित हुआ, मस्तिष्क विकसित हुआ, ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति विकसित हुई। ये सभी शक्तियाँ परस्पर शक्ति ग्रहण करती रहीं — परस्पर शक्ति प्रदान करती रहीं। परिणामस्वरूप समाज व मनुष्य का विकास होता रहा।
सही है कि बिना इन्द्रियों के ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता, किन्तु साथ ही यह भी सही है कि बिना ज्ञान के इन्द्रियों की शक्ति का प्रकाश सर्वथा नगण्य है। परस्पर अविच्छिन्न सम्बन्ध होते हुए भी आज मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसका समाज और श्रम है, न कि इन्द्रियाँ! जिस प्रकार इन्द्रियों का प्राकृतिक बोध — ज्ञान नहीं — बल्कि एक भ्रान्त प्रतीति है — उसी प्रकार इंद्रियों द्वारा अनुभूत प्रत्येक आनन्द वास्तविक और सच्चा आनन्द नहीं है। जिस प्रकार ज्ञानात्मक चेतना द्वारा अनुशासित इन्द्रियों की प्रतीति वास्तविकता के अधिक सन्निकट है—
उसी प्रकार कलात्मक चेतना द्वारा अनुशासित इन्द्रियों का आनन्द वास्तविकता के अधिक समीप है। कलात्मक चेतना का अपना कोई स्वतंत्र या नैसर्गिक रूप नहीं है। वह ज्ञानात्मक चेतना की आधार-भूमि पर ही विकसित होती है। किन्तु ज्ञानात्मक चेतना पर आश्रित होते हुए भी सत्य को व्यंजित करने की शक्ति कलाओं में अधिक गहन और तीक्ष्ण है, क्योंकि कला का सीधा सम्बन्ध इन्द्रियों से रहता है।
ज्ञान प्राप्ति के साधन — ये सामाजिक प्रतीक — मनुष्य को दैविक वरदान के रूप में एक साथ ही कहीं से अकस्मात् मिल नहीं गये थे। विकास-क्रम में उसने इन प्रतीकों को निर्मित किया है— चाहे उस निर्माण का क्रम उसकी अचेतन अवस्था में ही क्यों न सम्पन्न हुआ हो। इन अर्थ संकेतों के क्रमिक विकास का सही ब्यौरा आज बता सकना मुश्किल है; किन्तु यह निश्चित है कि नृत्य, संगीत और चित्रकला के रूप में आज जो स्वतन्त्र कलाएँ विद्यमान हैं— उनका आदिम-युग में कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था। ये कलाएँ ही तब की भाषा थीं। इन्हीं कलाओं से वाणी का उद्भव और विकास हुआ है। किन्तु वाणी के रूप में शब्द-संकेतों को स्वतन्त्र रूप से निर्माण होने पर इन आदिम बीज-संकेतों अथात् भाव-भंगिमा, ध्वनि, और चित्रों का लोप नहीं हो गया। वाणी के साथ-साथ वे प्राचीन भावाभिव्यंजनाएँ स्वयं अलग से भी विकसित होती गई। एक विशेष आवश्यकता के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने पर भी एक बार जब उनका अस्तित्व निर्धारित हो गया तो वे स्वयं में ही एक आवश्यकता बन गई— सत्य को व्यंजित करने की एक नई आवश्यकता। विभिन्न समयों की तत्कालीन आवश्यकताओं ने ही आगे चल कर स्वतंत्र कलाओं का रूप धारण किया है।
विभिन्न कलाओं के द्वारा वास्तविकता को विभिन्न रूपों में व्यक्त करने वाले ये कलात्मक प्रतीक भाषा से भिन्न होने पर भी सौन्दर्यग्राह्यता के लिए स्वयं में पूर्ण और पर्याप्त नहीं हैं। भाषा में व्यक्त ज्ञान के द्वारा परिमार्जित मस्तिष्क ही कला के सौन्दर्य को वास्तविक रूप में ग्रहण करने के लिए समर्थ होता है। कला में निहित सौन्दर्य को ज्ञान और अभ्यास की मर्मज्ञता से ग्रहण करना पड़ता है— इन्द्रियों की स्वस्थता ही इसके लिए पर्याप्त नहीं है। भाषा के द्वारा अर्जित ज्ञान पर आश्रित होते हुए भी कला का सौन्दर्य सत्य को व्यंजित करने का उससे भी श्रेष्ठ और सशक्त साधन है।
अगस्त, 1958