एक वृद्धा का घर सब प्रकार से भरा-पूरा था। उसके अनेक बेटे-बहूएं और पोते-पोतियां आदि थे। उसकी नातिन का विवाह तय हुआ तो घर में भात के दस्तूर की तैयारियां होने लगी। जब विवाह का समय आया तो वृद्धा के बेटे सारा सामान लेकर अपनी बहिन के घर ‘भात’ भरने के लिए जाने लगे। बुढ़िया ने भी उनके साथ जाने की इच्छा प्रकट की। उसके बेटे उसे साथ नहीं ले जाना चाहते थे क्योंकि उसे चोरी करने की आदत थी और वह खुद को ऐसा करने से रोक नहीं पाती थी। उन्हें डर था कि कहीं उनकी माता सगे-संबधियों के बीच इस आदत के कारण उन्हें नीचा नहीं दिखा दे। पर वृद्धा जाने के हठ पर अड़ी रही। ऐसे में बेटों ने उससे कहा कि वह अपनी आदत छोड़ नहीं सकती। इस पर वह बोली कि वह किसी भी हालत में वहां चोरी नहीं करेगी। फिर वे सभी ऊंटों पर सवार होकर ‘भात’ भरने के लिए चले गए।
 
विवाह बड़े आनंद के साथ सम्पन्न हुआ। जिस जगह पर भातवी पक्ष को ठहराया गया था, वहां पर कोई कीमती सामान आदि नहीं था। विवाह के बाद जब वे अपने गांव के लिए रवाना होने लगे तो बुढ़िया को आदत के चलते अफसोस हुआ कि वह तो कुछ भी नहीं चुरा सकी है और खाली हाथ लौट रही है। जब रवानगी का समय आया तो बुढ़िया ने ऊंट पर सवार होने से पहले गोबर के कुछ उपले चुपके से उठाकर एक बोरे में डाल लिए।  
 
जब वे अपने गांव में घर में पहुंचे तो ऊंटों से सामान उतारा गया। बुढ़िया जिस ऊंट पर बैठी थी, उस पर रखे बोरे में से कुछ उपले निकले। बेटे अपनी माता की आदत जानते थे। एक लड़का बोला कि मां ने आदत दिखा ही दी और चोरी कर ही डाली। पास ही में बैठी बुढ़िया ने उत्तर दिया – “चोरी नहीं की है, केवल चोरी की तीव्र इच्छा को किसी तरह शांत किया है।”
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