नागौर का प्राचीन दुर्ग राजस्थान में उल्लेखनीय दुर्गों में से एक है। शिलालेखों और साहित्यिक ग्रन्थों में इस दुर्ग को अहिछत्रपुर, नागदुर्ग, नागउर आदि नाम से जाना जाता हैं। अहिछत्रपुर नगर का वर्णन महाभारत में आया है। मरुस्थल और अस्त-व्यस्त भूमि से घिरा ‘धान्वन’ श्रेणी का यह दुर्ग वीर अमरसिंह राठौड़ की शौर्य गाथाओं के कारण इतिहास में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। नागौर के इस दुर्ग के निर्माता के बारे कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। ख्यातों के अनुसार, चौहान राजा सोमेश्वर के सामन्त कैमास ने एक दिन यहाँ एक भेड़ को भेड़िये से लड़ते देखा और इसे वीर भूमि जानकर उसने वैशाख सुदी 3 विक्रम संवत् 1211 को नागौर के किले की नींव रखी। प्राचीन काल में यह इलाक़ा मूलतः जांगलक्षेत्र में आता था, जिसमें हर्ष, नागौर सांभर सम्मिलित थे। डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा’ के अनुसार चौहानों का मूल राज्य जांगलदेश में था और उसकी राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी। नागौर की अवस्थिति सिन्ध और दिल्ली के मार्ग पर होने के कारण इसका अपना एक अलग ढंग का महत्त्व रहता था। चुनांचे साम्राज्यवादियों की दृष्टि सतत इस दुर्ग की ओर रहती थी।

इतिहास के अनुसार तराइन के दूसरे युद्ध (1192 ई.) में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के फलस्वरूप नागौर का किला मुहम्मद गौरी ने हस्तगत कर लिया और सुलतान कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद नागौर स्वतन्त्र हो गया था, जिस पर इल्तुतमिश ने फिर से अधिकार कर लिया। मंडोर के राव चूंडा राठौड़ ने जलालखाँ खोखर को मारकर नागौर दुर्ग ले लिया। उक्त प्रसंग और अन्य जानकारियां हमें दयालदास की ख्यात तथा कुछ अन्य ख्यातों से पता चलती है। इतिहास-प्रसंगानूसार जोधपुर के राठौड़ नरेश राव मालदेव ने 1536 ई. में नागौर के मुस्लिम शासक को मारकर वहाँ अपना अधिकार स्थापित किया। उक्त शासक द्वारा इस दुर्ग के जीर्णोद्धार का भी उल्लेख मिलता है। फिर शेरशाह सूरी के अधिकार में रहने के बाद नागौर मुगल बादशाह अकबर के अधीन गया। इसी क़िले को लेकर महाराजा विजयसिंह और मरहठों के बीच लम्बा संघर्ष चला। मरहठों ने नागौर के किले को लम्बे समय तक घेरे रखा। अंततः महाराजा विजयसिंह के सैनिकों द्वारा छल-कपट से मरहठा सेनापति जयप्पा सिंधिया की नागौर के समीप ताऊसर के सैनिक शिविर में हत्या कर दी गई। फिर नागौर पर अधिकांशतः राठौड़ों का ही राज रहा। यहाँ के राजा बखतसिंह ने नागौर के किले का जीर्णोद्धार करवाया। विविध कलाओं को प्रोत्साहन और प्रश्रय बखतसिंह के काल में हुआ। जिससे नागौर कला का केन्द्र बन गया।

इन सबसे इतर नागौर की प्रसिद्धि का महतवपूर्ण चरित्र अमरसिंह राठौड़ है। उनकी वीरता के किस्से राजस्थान के इतिहास में बहूल्लेखित हैं। अमरसिंह जोधपुर के महाराजा गजसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था लेकिन अपने उग्र स्वभाव तथा कुछ अन्य कारणों से वह जोधपुर की गद्दी से वंचित कर दिया गया। शाहजहाँ अमरसिंह की वीरता से बहुत प्रभावित था। बादशाह ने अमरसिंह को राव की पदवी तथा नागौर परगने सहित कुछ अन्य इलाके जागीर में दिये। वह शाहजादे शुजा के साथ काबुल भी गया। आगरा में शाहजहाँ के दरबार में घटित वह घटना बहुत प्रसिद्ध है कि शाहजहाँ के फौजबख्शी सलाबतखाँ द्वारा गंवार कहे जाने पर अमरसिंह ने उसे भरे दरबार में अपनी कटार से वार से उसे ढेर कर दिया था। तभी से लोक में ‘कटारी अमरेस/अमरसिंह री’ प्रसिद्ध हो गई। यह एक लोकगीत के रूप में भी गाया जाता है।

अनेक रोमांचक घटनाओं का साक्षी यह दुर्ग बहुत सुदृढ़ है। तमाम आक्रमणों की विभीषिका और काल के क्रूर थपेड़े इस दुर्ग के हिस्से रहे हैं। किले की सुदृढ़ प्राचीर और जल से भरी गहरी खाई नागौर दुर्ग को सुरक्षा का अभेद्य कवच पहनाती-सी प्रतीत होती है। प्राचीर में 6 भव्य प्रवेश द्वार हैं जो क्रमशः जोधपुरी, अजमेरी, नाकास, माही, नया और दिल्ली दरवाजा कहलाते हैं। दुर्ग की प्राचीर में 28 विशाल बुर्जे बनी हैं और इसका परकोटा लगभग 5000 फीट लम्बा है। किले के 6 विशाल दरवाजे हैं जो कचहरीपोल, सूरजपोल धूपीपोल, राजपोल, सिराईपोल, बिचलीपोल आदि कहलाते हैं। किले के भीतर सौंदर्य छन-छन कर सामने आता है, परत-दर-परत भित्तिचित्र बने हुए हैं। बादल महल और शीश महल विशेष रूप से प्रसिद्ध है। खिलखिलाती रमणियाँ, पेड़ की छांव में संगीत सुनते प्रेमी युगल, भान्त-भान्त के नस्लों के चुस्त घोड़े आदि का चित्रण कलापूर्ण है।

कला, स्थापत्य और इतिहास की दृष्टि से सम्पन्न यह दुर्ग पर्यटन की नजर से बहुत महतवपूर्ण है।

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