यह उदयपुर संभाग का सर्वाधिक प्रसिद्ध नृत्य है, जिसे यहाँ रहने वाली ‘भवाई’ जाति के स्त्री-पुरुषों द्वारा किया जाता है। आरंभ में यह नृत्य मेवाड़ क्षेत्र की भवाई जाति के पुरुषों द्वारा सिर पर बहुत से घड़े रखकर किया जाता था, इसलिए इसे ‘मटका नृत्य’ भी कहा जाता था लेकिन भवाई जाति के लोगों द्वारा किये जाने कारण इसका नाम भवई नृत्य पड़ गया। यह मूलतः पुरुषों का नृत्य है लेकिन आजकल महिलाएँ भी इस नृत्य को करती हैं।
इस नृत्य में नृत्य करते हुए पगड़ियों को हवा में फैलाकर कमल का फूल बनाना, सिर पर अनेक मटके रखकर तेज तलवार की धार पर नृत्य करना, काँच के टुकड़ों पर नृत्य, बोतल, गिलास व थाली के किनारों पर पैर की अंगुलियों को टिकाकर नृत्य करना आदि इसके विविध रूप हैं। यह नृत्य शारीरिक क्रियाओं के अद्भुत चमत्कार तथा लयकारी का है। यह कथानक पर आधारित होता है, जिसमें कई प्रकार के प्रसंग होते हैं। इस नृत्य के प्रवर्तक केकड़ी निवासी बाघाजी/नागोजी जाट माने जाते हैं। किन्तु इसे विशिष्ट ख्याती भारतीय लोक कला मण्डल उदयपुर के संस्थापक देवीलाल सामर ने दयाराम भील के माध्यम से दिलाई। इस नृत्य के विख्यात कलाकार रूपसिंह राठौड़ (जयपुर), आकांक्षा पालीवाल, अस्मिता काला (जयपुर की बाल कलाकार जिसने 111 घड़े सिर पर रख कर नृत्य कर अपना नाम ‘लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड’ में दर्ज करवाया), कजली, कुसुम, द्रोपदी, तारा शर्मा (बाड़मेर) दयाराम भील (उदयपुर) पुष्पा व्यास (जोधपुर) आदि हैं।