मोर करत अति सोर चमकि रही बिजरी।

जाको पीव विदेस ताहि कहां तीज री॥

बदन मलिन मन सोच खान नहिं खाती है।

हरि हां, वाजिंद,अति उनमुन तन छीणर हति इह भांति है॥

स्रोत
  • पोथी : संत सुधा सार (विरह कौ अंग से उद्धृत) ,
  • सिरजक : वाजिद ,
  • संपादक : वियोगी हरि ,
  • प्रकाशक : मार्तण्ड उपाध्याय, सस्ता साहित्य मंडल,नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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