ग़ुलामी पर कवितावां

ग़ुलामी मनुष्य की स्वायत्तता

और स्वाधीनता का संक्रमण करती उसके नैसर्गिक विकास का मार्ग अवरुद्ध करती है। प्रत्येक भाषा-समाज ने दासता, बंदगी, पराधीनता, महकूमी की इस स्थिति की मुख़ालफ़त की है जहाँ कविता ने प्रतिनिधि संवाद का दायित्व निभाया है।

कविता2

समै रो फेर

दीपचन्द सुथार

दूध-दही नैं चाय चाटगी

गौरीशंकर ‘भावुक’