नै जाणै क्यूं, म्हंई वांपै लिखती बगत राजस्थान में गाया-जाबा हाळा अेक लोकगीत की याद जावै छै। बस अैन-मैन अस्या ई, छावै-जस्या ये छै—

‘अरै तो संकर्‌या रै, मान मस्ताना’। इनै बाच्यां सूं अर सुण्यां सूं जे भाव आंख्यां में तरबा लागै उस्या।

पहलवान छाप बीड़ी का बण्डल में लाग्या चिह्न पै दोन्यूं खां-खां में हाथ धसा’र ऊबा रैबा की छब। खैच’र बांधो स्याफो, धोती कीअेक लांग पूरी,अेक पै गोडा ताणी चढ्यो पाच्यो। मंगर का मूंडा का सवापाव का चांदी का कडूल्या, कानां में सूना की मरक्यां, स्याफा को तुर्रो ऊंचो अर छणगो बांडो।अेक मंझ मोट्यार को सो उणग्यारो, बां दे’र हांसबा की चाल, सोवता दातां सूं सटी बत्तीसी। जवानी में यांकी मारी हरण खोळा होवै छा। गारा में गची भराड़ी भंस्यां, उठाण आया ढोर ईं उठाबा कारण संकरजी ईं चतारै छा सब।

बाळकां कै लारां बाळक, स्याणा समझणा कै लारां अक्कल का अवतार संकरजी की म्हांनै अेक नै घणी ख्याणा सुणी छी। संकर जी कै मुंडा का चुटकला अस्या ज्यामैं हांस-हांस’र पेट में पाणी हो जावै। घणी बार पाड़ा-ग्वाड़ा की बायरां खैती दीखती ‘साठ्यो-नाठ्यो होग्यो ईं बूढ़ा लाळी में कदेक समझ आवैगी राम...।’ ‘अरी समझ आवैगी फूल। दस-बीस गाळ्यां सुण्या बना तो रोटी नै भाती होवैगी ईं। अब खैवां बी तो कांईं खैवां? रोस बी करां तो खीं को? मळक’र या खैतो खड़ जावै छै’— ‘गाळ्यां’र गुड़ तो खायांई भला भाभी’।

गरम्यां की छुट्टयां में दाता कै लारां जद म्हां गांव नै जाता; संकरजी मलतां खैता —‘आया लाला!’ अर खदीं पायचा में सूं खाड’र सैंठा का चोखंड्या की मेरौं का दड़ा पै पाक्या बोर देता, तो खदीं कबूतर कीं आंख जसी मोटी-मोटी मठड़ी की फैंक खदीं-खदीं नुवां नारक्यां नै रेंकळी में जोत’र ‘गजानन्द का नानख्या, दोन्यूं चालै स्यारक्या’ सुमर’र गाडी भगाता दीखता, तो खदीं हांस-हांस’र लीला होता।

जान कोई की बी सजती, संकरजी सबसूं आगै।

मेळा मैं काईं जावो अर नै जावो, पण संकरजी की गाडी सबसूं फैली तणती। सांच्यां ईं अस्यो लपट’र लागबो म्हांनै कोई वरला मनख में देख्यो छै। संकरजी को मालू अर संकरजी की साळ सारा गांव सूं नैपै। असाड़ी में सबसूं अगावता रैता अर फेर चोमासै-चोमासै बापड़ी का पचदरा कै फरोतजी की बगली में बैठ’र तास का पत्ता फैंकता। तास में वांई ‘प्लास’ की भी लत छी; पण आडै दिन में होळी-दुवाळी।

वांका फैरावा में म्हंनै जे खास बात देखी; वा छी कमीज का गळा ताणी जुड़्या बटण अर अेक बोलणी जूत्यां; अळ्यां-गळ्यां मैं चरड़ मरड़ सुणतां घर में बैठ्यो मनख बी खै देतो संकरजी छै।

यूं तो वांसूं जुड़ी केई बातां छै, पण वांका मोट्यारपणा की ख्याणी यां टीपबो छाऊं हूं

अेक बार गाडा में अेक गर्‌याळ बैल सूं पाळो पड़ ग्यो। संकरजी सै पूंछ कै बळ दै अर बैल लात फैंकै। संकरजी आर्‌यो लगावै अर बैल आगै बढ़बा की बजाई पाछो सरकै। रास का सड़ाका अर मूंडा की टचकारी देतां-देतां संकरजी को जीव रैग्यो, पण बैल भाटो होग्यो। ईं बीच वांकै अेक भरपूर लात पड़ी अर टांग सूं लोई को रेलो चाल खड़्यो। संकरजी ईं आई झूंझळ अर बैल कै आगै फेर टांग करदी लै दै, अर बैल नै फेर टींच द्‌या। अस्यां करतां यूं खै कै बैल लात फैंकतो-फैंकतो थाक ग्यो, पण संकरजी ऊंकै पाछै टांग करता नै हार्‌या अर घरणै टूट्यो हाड अर लोई सूं भरी मोचड़ी ले’र आया।

संकरजी कै पावां नीचै दो बैलां की जमीं, च्यार खूंटी ज्याग अर घर में दूध देबा हाळा डांगरा सदा बण्या र्‌या। खेत सूं खळावड़ भर’र लाती बार बैल थोड़ो सो बी सेळो पड़्यो होठी चढ़तां तो दूसरै दिन मेळो दखा’र दाम बांध लाता संकर जी। सांची पूछो तो वांईं गर्‌याळ डांगरा अर गर्‌याळ मनख दोन्यूं सूं घणी चिढ़ छी। गांव का कोई परण्या- पथाया मोट्यार कै बरस दो बरस पाछै तांईं छोरा-छोरी नै लागता तो संकरजी चरड़ाबा लाग जाता। गांव की समिति को सांड गायां की हर नै करतो तो मन पड़ै जस्यां गाळ्यां खाडता। कोई छोरो-छापरो या स्याणो समझणो, ऊंठी हो’र खड़तो अर खै तो संकरजी यो काईं... तो मोटी सी गाळ खाड’र खैता —‘ई बरदा र्‌यो छूं म्हारा साब।’

संकरजी कै जागतां अर सोतां दोन्यूं बगत गांव की बना ख्यां सुण्या की रुखाळी रै छी। चोर वांका पळस्या ऊंचो करबो तो दूर, वांकी आडी हो’र नै खडता।

जीवता जुझार अर खेड़ा का खेतरपाळ की नाईं संकरजी की ओपमा अर संकर जी को ताव।

धूणी बळती बगत अर चोपाळ मैं गोठां गायां पाछै रेखा उठता ज्यान संकरजी हूं गोद-गोद’र पूछता —‘खाजी दाजी, वा खाट उठाबा वाळी कांईं ख्याणी छी? वा राबड़ी खाती कुण...।’ अर संकरजी आपणा प्रेम की फड़ बांचबा लाग जाता। संकरजी की बू सूं गांव मैं सब काकी खैता। काकी सांवळी-सी अकेवड़ी मांसळी की गूजरी छी। जतना संकरजी बोळाक; काकी उतनी स्याणी सूंठ।

संकरजी अेक बार मेळै ग्या। दांईं-दड़का नै जगरा पै सकती बाट्यां देख’र खी —‘संकर्‌या बाट्यां फेरतो रै’गो कै लगावण की बी जुगत बठाणैगो?’ ऊंठी सूं अेक चाय हाळो ‘छा लो, छा ल्यो’ खैतो खड़्यो। संकरजी नै जाणी-चोखी भड़ी; अर ले कमोळी छाछ कै भरोसे चाय भरा लाया। रात की बार संकरजी चूर-चूर बाट्यां खाबा लाग्या। स्वाद कड़ो-कड़ो देख’र भायला नै बी हाथ समेट’र खी —‘यो खां सूं उठा लायो सूमळखार?

संकरजी लट्ठ ले’र मेळा में छा-हाळा ईं हेरबा चाल्या, अर मलतां ईं आव देख्यो नै ताव लट्ठ की झमोड़ दी। संकरजी नै चोखो मजा को रास रोप द्‌यो। लोग मेळा देखणो छोड़’र संकरजी ईं देखबा लाग ग्या। आखर में लोगां नै बीच-बचाव कर’र वांकी जाण-पछाण चाय सूं कराई।

अस्यां अेक बार गांव मैं सींगड़्यां-हाळो आयो। संकरजी बोल्या—‘अेक सींगड़ी का कतना?’ बोल्यो— ‘पांच।’ संकरजी नै खी—‘ईमें थारा हाथ की कांईं-कारीगरी, लोई तो खाडणू छै, म्हांई खाड ल्या।’ सींगड़ी-हाळो बोल्यो—‘तो बतावै नै खाड’र’ संकरजी नै खी, ‘कतना देगो?’ ‘दस।’ अर संकरजी नै हाथ टांच्यो सूदो पगपै देल्यो। सींगड़ी हाळा की आंख्या मच गी अर दस को नोट हाथ में मैळ’र चाल खड़्यो। पाछै ऊं पांव पै कतना दिन पान-पाटा होता र्‌या, या तो काकी सुणावै छै।

अबकी तो बात और छै, पण अेक जमानो छो जद संकरजी ईं आस-पास का खेड़ा-कांकड़ा की बायरां जाणै छी

माटी का दुख सूं बाप का पळस्या पै खुलबा हाळी, सेन-पेट कर’र दूसरा गांव नुयो दन उगाबा हाळी। वांईं घर की देळ पुजाबा कै कारण संकरजी को तेळ-प्यो लट्ठ रामबाण छो। सब नै पाळी चढै छी संकरजी का नाम सूं। ज्यां संकरजी जा खड़ता वां देवता का थाणक पै मूंड हलाता भोपा का भाव अर घूमर दे’र नाचती डाकण्यां का छैन हरण हो जाता।

होळी का टांकड़ा पै ज्यां कोई फागां गाता; कोई चंग बजाता व्हां संकरजी होळी का खूंट पै टाबर-टोळी में जा’र वांई बाजणा सखाता अर वांको नाम ले-ले’र ग्वाता ज्यांका नाम पै गांव मैं तोता-मैणा का कस्सा चालता रैता। यूं पाप उजागर होता अर केई भाई ऊंडा बोपार हूं लोक-लज्जा कै मारी हाथ खैंच-लेता। केई बार कोई उथळा सोभाव हाळा सूं राड़ रप जाती, पण हाथां सूं अर बातां सूं संकरजी हारता जदी नै।

पण मोटा मळकणा संकरजी कै अेक दरद छो ज्यो पाका दूखणा की नांई दूखतो रै छो अर छो आस को। राम की दी दो बेट्‌यां ईं छी वांकै; जे मासां-बरसां में आती अर जाती, जीं दन संकरजी व्हां ताणी झांकता रैता ज्यां ताणी बैलां की घूघरमाळ वाकां काना मैं बाजती रैती। गेलै जाती गाडुली की धूळ दीखती रैती अर अस्यां देखता स्याफा का पीळा छणगाई बार-बार आंख्यां में लगाता अर हटाता वै।

सोचूं छूं अस्या हर्‌या-हर्‌याळा मनख कै नै स्यां सूं गांव को कतनो रूपक मरैगो कोई दन। धूणी को जगेरो, चोपाल की गोठां, होळी का खूंट को बाजणो, द्वाळी की हीड, तास का बावन पत्ता, फीर-सासरा जाबा में ठणकती बायरां, सब चतारैगा सब रोवैगा जद संकरजी नै रै गा गांव में।

स्रोत
  • पोथी : हाड़ौती अंचल को राजस्थानी गद्य ,
  • सिरजक : दुर्गादान सिंह ‘गौड़’ ,
  • संपादक : कन्हैयालाल शर्मा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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