जा दिन तैंभये रावरैं मांन, सम्हारै बातनकी गहराई।

वा दिनकी उन बातनपैं बलि, कीजिये क्यौं यतनी सतराई॥

वाकै भये मुख रूखैं कछू, ज्यौं सबै सखियानकी उप्पम छाई।

रातिकै आंवन पांतिकी पांति, मनौं जलजातकी जात लजाई॥

स्रोत
  • पोथी : नेहतरंग ,
  • संपादक : श्रीरामप्रसाद दाधीच ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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