आजु मैं देखी है गोपसुता मुख, देखै तै चन्द्रमा फीकौ व्है जोतो।

गोर गुलाब की आबहू तैं, गहराई गुराई कैं संग समोतो।

सिंधुसुता सम ताकैं समांन, सो वा बलिकौ रंग ओर अन्होतो।

होती जो कुंदन कै अंग बास जौ, जौ कहुं केतकी कांटौ होतो॥

स्रोत
  • पोथी : नेहतरंग ,
  • सिरजक : बुध्दसिंह हाड़ा ,
  • संपादक : श्रीरामप्रसाद दाधीच ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ,
  • संस्करण : first
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