बैध्यो मछ जिण बार, माण दुजोधन मेटियौ।

खैचै कच उण खार, थां पारथ बैठ्यां थकां॥

भवार्थ:- जिस समय दुर्योधन ने भरी सभा में दु:शासन के द्वारा द्रौपदी को पकड़ बुलाया, उस समय वह अर्जुन को संबोधित करके कह रही है—

जिस समय तुमने मत्स्य को बेध दिया था और दुर्योधन के मान को मिटा दिया था (तभी से वह खार खाये बैठा था) उसी द्वेष के कारण आज मेरे बाल खींचे जा रहे है। किन्तु हे पृथा के पुत्र! यह सब तुम्हारी उपस्थिति में हो रहा है और तुम बैठे बैठे देख रहे हो! द्रौपदी स्वयंवर में जिस अर्जुन ने कौरवों का मान मर्दन कर दिया था, आज वही अर्जुन अपनी विवाहिता पत्नी का अपमान अपनी आँखों देख रहा है!

स्रोत
  • पोथी : द्रौपदी-विनय अथवा करुण-बहत्तरी ,
  • सिरजक : रामनाथ कविया ,
  • संपादक : कन्हैयालाल सहल ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
जुड़्योड़ा विसै