(स्री मावजी रो कथन के जो कोई अणीं 'बारामासी' ने के, सुंणें अर गवावे वणीं रो वैकुण्ठ वास वे अर जो कोई रसते चालतां-चालतां भी सुंण लेवे, वणीं ने गंगा-स्नान रो फळ अवश्यमेव मिळे, अणीं मांय कणीं तरे' रो संदेह नीं है।)

कार्तिक मासे अभ्यो सुंदरी सेलो सेलो ने अमो परवेश रे।
पियुं पर तो अमो उतर्‌या अबला नो वारो वेश रे॥
माघ सरे मन माहें प्रभु संतों ने रेजु ठाम रे।
भर्‌या जोबन मई मेली गया केम जी वसी मोरा कंत रे॥
पोष मास नी प्रीतड़ी अमनी गणी दुबेली जाय रे।
जीम-जीम कृष्ण सांभली मारी काया ते संदे तेज रे॥
मा मासे मन माय प्रभु शीतल बाजे अंध गणीं।
अणीं रीते कृष्ण घेरे आवी तारी वाट जोवे मे'मान रे॥
फागण वेलो फगुकियों उड़े-उड़े रे अबी-गुलाल रे।
जिम-जिम कृष्ण मने सांभलें मारी काया ने कंकण लोल रे॥
सेतरी कोपे कांपणी मारे पोडी ल बुरू पान रे।
जिम-जिम कृष्ण मनी सांभले, मारा दन जिव्या अवतार रे॥
वैशाखे वन प्रति पालवी मोरी-मोंरी ते दानव दाख रे।
मन मीठा मोरा मोघरा फुली-फुली ते सर्वे मल साग रे॥
जेठ मास न जल मलें भली-भली ते आवा डार रे।
भलि सहेलियों नी गोठणी भल भले ते पाक नार रे॥
आषाढ़े आव्यो ओनणी गॉज-गॉज ते घेर गंभीर रे।
पपैया पियु-पियु करे पेली कोयल करे कलोल रे॥
श्रावण वरस्यो सरवणें गंगा-जमना जी गई भरपुर रे।
रूपे ते ऊँढ़ राधिका जेने राखड्यिों सेत जई रे॥
भादरवो भरथार बिना मने घणों दुवेलों जाय रे।
आ दई दुजेणु घर अंत घणु कृष्ण बिना भुखि लिधु नव जाच रे॥
आसीरे मास मति आवियों रुढ़ा घेर-घेर जोसम थई रे।
अणि रति सवामी घरे आवी मा दन जिव्या अवतार रे॥
बार मास पूरा क्या जारे आव्यो ते अधिक मास रे।
कृष्ण वरावी ने अमें बर्‌यूं जारी ऊँब सरोवन नी पार रे॥
पारे ते ऊंब सुंदरी जुई-जुई हरि नी वाट रे।
आंसुड़े भिजे कँसुओं मारे नयन तो खल्व्ये नीर रे॥
बार महिने कृष्ण घेरे पधार्‌या जारी उमा ते आंगण साथी रे।
आंगणे बाबु एलसी भाड़े दुडेले नागर वील रे॥
तेर महिने कृष्ण घेरे पधार्‌या नारद जी मारा वीर रे।
सवा-सवा लाख नीं मारी मोन रक्षा मारी बांही गई नव जाई रे॥
गाय, गवड़ा, सीझ सांभले तेनो हजु ते वैकुण्ठ वास रे।
अेक मारग जातु सांभले, तेनी गंगा तणों स्नान रे॥
स्रोत
  • पोथी : भारतीय साहित्य रा निरमाता संत मावजी ,
  • सिरजक : संत मावजी ,
  • संपादक : मथुराप्रसाद अग्रवाल, नवीनचन्द्र याज्ञिक ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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