संतौ बोध बिमल बरदाई।
जाति पांति जिव की नहिं जानै, परसत होत सहाई॥
दृग अनंत जिमि देखि दिवाकर, तम तारौ खुलि जाई।
ऐसे ज्ञान अज्ञान उठावत, उर आंखिन रुसनाई॥
इंद्र अकलि धरि ऊपरि बरषत, घटि बधि करत न घाई।
नीर न्यान कै गति मति येकै, बरु तरु तन निरताई॥
दिव दृष्टी नाहीं तहां दुबिधा, पंच तत्त परि पाई।
रज्जब रही तहां लघु दीरघ, समता सुरति समाई॥