संतौ कण चाकी कौं पीसै।

तामे फेर सार कछु नाहीं, गुरु प्रसाद सो दीसै॥

दीपक जलै पतंगे माहीं, मूंसै मीनी खाई।

कीड़ी कुंजरि मारिग टार्‌यो, हिली सु हाथा जाई॥

लाकड़ि पकड़ि कूहाड़ी काटरा, तिणकै तंबा चाबी।

दीन दादुरो अहि आरोगै, बाछी बाघणि दाबी॥

अद्भभुत बात उरहुं क्यूं आवै, यहु सब उलटी सारी।

जन रज्जब सो परतखि देखी, कुही कबूतरि मारी॥

स्रोत
  • पोथी : रज्जब बानी ,
  • सिरजक : रज्जब जी ,
  • संपादक : ब्रजलाल वर्मा ,
  • प्रकाशक : उपमा प्रकाशन, कानपुर ,
  • संस्करण : प्रथम