समज मन सदा धर्म एक संगी। तेरे कबहू न आवे तंगी॥
समज मन सदा धर्म एक संगी। तेरे कबहू न आवे तंगी॥
जन्में जीव अकेलो जग में, नित व्है काया नंगी।
अंतकाल में जीव अकेलो, जाय पयांने जंगी॥
धर्म्म बिनां देखो धरनी में भये किते हक भंगी।
धर्म प्रताप धरापति धारत, रजधांनी बहु रंगी॥
पुन्य प्रताप होय अंग पूरन, पाप प्रताप अपंगी।
प्रथम विचार पाप को पापी, कर मत मीत कुसंगी॥
धन नह चले चले नह धरनी, दुरग चले नह दंगी।
सुत नह चले जीव के साथे, चले नहीं चतुरंगी॥
दरसण देख करे नित दांतण, रहे पतीव्रत रंगी।
पुन्य खीन तैं करत पयानो, धनी छोड़ अरधंगी॥
मन भावनी माधुरी मोहनि, चंद बदन चित चंगी।
अन्तकाल में अर्थ न आवत, कामनि नैन कुरंगी॥
धर्म सुकाय दयानन्द धार्यो, रात दिवस इकरंगी।
पक्षपात विन महाप्रतापी, निरभय तेज उनंगी॥
धृती, क्षमा, दम, सत्य, अक्रोधी, एक धर्म गुन अंगी।
उमरदांन निज अरथ उड़ावन, कर मत बात कुढंगी॥
समज मन सदा धर्म एक संगी। तेरे कबहू न आवे तंगी॥
समज मन सदा धर्म एक संगी। तेरे कबहू न आवे तंगी॥