साल्हिया हुवा मरण भय भागा, गाफल मरणै घणा डरै।

सत गुरु मिलियो सतपंथ भ्रतायो, भ्रांत-चुकाई मरणै बहु उपकार

करै।

रतन काया सोभंति लामै, पार गिरायें जीव तिरै।

पार गिरायें सनेही करणी, जंपो विष्णु दोय दिल करणी

जंपो विष्णु निंदा करणी।

मांडो कांध विष्णु कै सरणै, अतरा बोल करो जे सांचा।

तो पार गिरांय गुरु की बाचा।

रवणा, ठवणा, चवरा भवणा, ताहि परै रै रतन काया छै,

लाभै किसे बिचारे?

जे नवीये नयणी खवीये खवणी, जरिये जरणीं,

करिये करणी तो सीख हुवां घर जाइये।

रतन काया सांचै की ढोली, गुरु परसाद केवल ज्ञाने-

धर्म अचारै शीले संजमें सत गुरु तुठे पाइये॥

जो गुरु द्वारा उपदिष्ट हो गया हैं उसका मृत्यु-भय जाता रहा, पर जो गुरु की शिक्षाओं से अनजान रह गये, वे मरने से बहुत डरते हैं। (विशेष-“साहिल्या” जनो को देहावसान में माया से सर्वथा मुक्त होने का अवसर मिलता है अतएव उन्हें मृत्यु से भयभीत होने का कोई कारण नहीं पर जो गुरु की शिक्षाओं से अनभिज्ञ रहते है, वे माया-मोह की पाश में आबद्ध होने के कारण मृत्यु से डरते हैं)।

जिसको सद्गुरु मिला, उसको सद्गुरु ने सत्य का मार्ग बताया (और उसकी समस्त) भ्रांतियों को निवृत कर यह बता दिया कि मृत्यु भी मनुष्य का बहुत उपकार करती है। अच्छे कर्म करने वाले व्यक्ति को मरणोपरांत उज्ज्वल रत्नों जैसी शोभा देने वाली दिव्य देह मिलती है, उसका मोक्ष होता है तथा जीवात्मा भवसागर से तर जाता है। मोक्ष शुभ कर्मों से स्नेह करने से होता है। हे मोक्षाभिलाषियों! विष्णु को एकाग्र होकर जपो। विष्णु को जपो और किसी की निन्दा करो।

विष्णु के आगे अपने अहं को छोड़ कर सिर झुका दो उसी के शरण हो जाओ, तुम यदि मेरे इन उपदेश वाक्यों को सच्चा प्रमाणित करो तो यह गुरु के वचन हैं, कि तुम्हारा मोक्ष होगा।

रहन-सहन, उत्तम स्थान तथा श्रेष्ठ भवन है उनसे आगे “रतन काया” (मोक्षपद) है। परन्तु यह कौन से विचार से उपलब्ध होता है?

यदि नमस्कार करने योग्य को नमस्कार किया जाय, क्षमा करने योग्य पर क्षमा की जाय, पचाने योग्य (काम-क्रोधादि) को पचाया जाय अर्थात् शमन किया जाय और करने योग्य कर्म किये जाय। तो इस प्रकार की शिक्षा से प्रशिक्षित होने से ही असली घर (मोक्ष-धाम) जाया जाता है।

“रतनकाया” (मोक्ष) सत्यत्व की एक आकृति है, यह गुरु के प्रसाद से, केवल्य ज्ञान से, धर्माचरण से, शील से, संयम से तथा सतगुरु के तुष्टमान होने से प्राप्त होती है।

स्रोत
  • पोथी : जांभोजी री वाणी ,
  • सिरजक : जांभोजी ,
  • संपादक : सूर्य शंकर पारीक ,
  • प्रकाशक : विकास प्रकाशन, बीकानेर ,
  • संस्करण : प्रथम
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