रे मन सूर संक क्यूं मानै।
मरणे माहिं एक पग ऊभा, जीवन जुगति न जानै॥
तन मन जाका ताको सौंपै, सोच पोच नहिं आनै।
छिन छिन होइ जाइ हरि आगे, तौ भी फेरि न बानै॥
जैसे सती मरै पति पीछे, जलतौं जीवन जांनै।
तिल में त्यागि देइ जग सारा, पुरिष नेह पहिचानै॥
नख सख सकल सौंज सिर सहता, हरि कारिज परिवानै।
जन रज्जब जगपति सोइ पावै, उर अंतरि यूं ठानै॥