मिथ्या मैं तो भटक मर जाती। बिना सतगुरु गम कैसे पाती॥
पिछली बात याद मोहे आवे, उमगत है मेरी छाती।
हा हा जन्म खोया कई मुफ्ता, फिर भी मुफ्त खो जाती॥
बहुत ही बार मनुष्य जन्म लियो, भटक यूँ ही दुःख पाती।
जो मिलिया सो मिलिया स्वारथिया, दिन दिन रही मैं जराती॥
सतगुरु मिलिया अन्तर टलिया, बाची प्रेम की पाती।
ऐड़ा सतगुरु भव दुःख मेट्या मेटी त्रिविध दुःख राती॥
देवनाथ गुरु समरथ मिलिया, नहीं तो बहुत अळुझाती।
मानसिह घर बैठा ही जोया, ऐसी बात सुहाती॥