माया माहिं भज्या हरि जाइ।

सकल संत देखौ निरताइ॥

जैसे चंद कमोदिनि नेह, जल बिछुरै पुनि त्यागहि देह।

जैसे सीप स्वाति रत होइ, साइर बिन जीवै नहिं सोइ॥

ज्यूं तरवरि प्राणी की आस, धरती बिछुरै मूल बिनास।

काया माया तजै कोय, रज्जब भजे सकल सिधि होय॥

स्रोत
  • पोथी : रज्जब बानी ,
  • सिरजक : रज्जब जी ,
  • संपादक : ब्रजलाल वर्मा ,
  • प्रकाशक : उपमा प्रकाशन, कानपुर ,
  • संस्करण : प्रथम