करि कुसंगति आत्मा, गुर ज्ञान बिचारी।

सकल बुरे का मूल है, सुणि सीख सु सारी॥

चोर जार बटमार व्है, बहु करै बुराई।

संगति करि संकट सबै, नीकै निरताई॥

काया संगति कपट मैं, गन मनसा मैली।

प्राण पाप पूरण करै, पंचनि की सैली॥

माया मिलि मैले सबै, सब लोक मंझारा।

जन रज्जब रज ऊतरे, रटि राम पियारा॥

स्रोत
  • पोथी : रज्जब बानी ,
  • सिरजक : रज्जब जी ,
  • संपादक : ब्रजलाल वर्मा ,
  • प्रकाशक : उपमा प्रकाशन, कानपुर