जां कुछ जां कुछ कछू जाणी, ना कुछ ना कुछ तां कछु जाणी।

ना कुछ ना कुछ अकथ कहांणी,ना कुछ ना कुछ अमृत वाणी।

ज्ञानी सो तो ज्ञानी रोवत, पढ़िया रोवत गाहै।

केल करंता मोरी मोरा रोवत, जोय जोय पगां दिखाही।

उर्ध खैंणी मन उन्मन रोवत, मुरखा रोवत-धार्ही।

मरणत माघ संघारत खेती, के के अवतारी रोवत राही।

जड़िया बूंटी जे जग जीवै, तो! बैदा क्यों मरजाई।

खोज प्राणी अैसा बिनाणी, नुगरा खोजत नाहीं

जां कुछ होता ना कुछ होयसी, बल कुछ होयसी ताही॥

जो व्यक्ति अभिमान से यह कहता है कि मैंने उस परमात्मा को कुछ जान लिया है उसने परमात्मा को कुछ भी नही जाना। जो अकिंचन भाव से यह कहता है कि मैंने परमात्मा को कुछ भी नहीं जाना है, उसने कुछ जाना है। ईश्वर की अकथनीय कहानी को मैं तुच्छ व्यक्ति नहीं समझता सकता। ऐसे “ना कुछ-ना कुछ” कहने वाले सरल-हृदय भक्त की वाणी अमृतवाणी है।

जो मात्र वाचक ज्ञानी है वे अपने कथन मात्र को ही ज्ञान की सर्वोच्च स्थिति मानते हैं और जो पढ़े लिखे है- शास्त्रो के ज्ञाता पंडित है वे सुरुचिपूर्ण ढंग से कथा-कथन में ही अपनी शास्त्रज्ञता समझते हैं।

जैसे मयूरी के सामने विनोद क्रीड़ा करता हुआ मयूर अपनी कमजोर अथवा कुरूप टांगो को देखकर रोता है वैसे ही वे तथाकथित ज्ञानी और कथा वाचक ज्ञानी सिद्ध होने एवं कथाकुशल होने के लिये आतुर होते हैं।

योगी जन ऊपर को उठाने वाली उन्मनी मुद्रा को साधने के लिये आतुर रहता है परन्तु मूर्ख अपनी उदरपूर्ति के लिये सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति के लिये ही दहाड़ मार कर रोता है अथवा उन पदार्थों के पीछे मारा-मारा दौड़ता है।

मृत्यु के मर्म को समझो वह संसार रूपी रण खेत में सबका संहार करता है। कई-कई अवतारी पुरुष इस मार्ग को जानने वालों पर रोते है।

यदि संसार के लोग जड़ी बूटी से जीवित रहें तो फिर वैद्य क्यों मर जाते है? हे प्राणी! ऐसे विज्ञान स्वरूप परमात्मा की खोज कर जिसकी खोज “निगुरे” नहीं करते।

जो परमात्मा वास्तव में प्राप्त होने वाला है वह अकिचन को ही प्राप्त होगा मैं पुन यह कहता हूँ कि वह उसी के पास कुछ होगा। विशेष:- भक्ति मार्ग में साधक को अपने प्रभु के सामने अपना अस्तित्व सर्वथा मिटा देना पड़ता है। जब तक अपनापन रहेगा तथा भक्त अपनी चर्म चक्षुओं से उस परमेश्वर को देखना चाहेगा तब तक वह प्रभु उसकी आखों में नहीं उतरेगा। प्रभु को प्रभु की आखों से ही देखा जा सकता है। यह शब्द इसी भाव की ओर निर्देश करता है।

स्रोत
  • पोथी : जांभोजी री वाणी ,
  • सिरजक : जांभोजी ,
  • संपादक : सूर्य शंकर पारीक ,
  • प्रकाशक : विकास प्रकाशन, बीकानेर ,
  • संस्करण : प्रथम
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