रूप अरूप रमू पिंडे ब्रह्मडे, घट घट अघट रहायो।

अनन्त जुगां मैं अमर भणीजूं, ना मेरे पिता ना मायों।

ना मेरे माया ना छाया रूप रेखा।

बाहर भीतर अगम अलेखा।

लेखा अेक निरंजन लेसी, जहां चीन्हो तहां पायों।

अडसट तीरथ हिरदा भीतर कोई कोई गुरुमुख बिरला न्यायों॥

मैं रूप दृश्य और अरूप अदृश्य भाव से पिंड में, ब्रह्मांड में तथा प्रत्येक प्राणी के हृदय में पूर्णरूपेण परिव्याप्त रहता हूं।

मैं अनत युगों में भी सर्वथा अमर कहलाता हूं, मेरे पिता है और माता। मेरे में माया है, छाया (अविधा) है और मेरे ब्रहम-स्वरूप में किसी प्रकार की रूप तथा रेखा ही है मैं तो ब्रह्मात्मभाव से बाहर और भीतर सर्वत्र ही अगम्य तथा अपरिचित हूं, उसको वही पा सकेगा जो एक निरंजन का ही हिसाब (पता) करेगा, उस परमात्मा को जहां देखा वहीं (वह) प्राप्त हुआ।

अडसठ तीर्थ हृदयदेश के भीतर हैं किंतु उसमें कोई-कोई बिरला ही गुरुमुखी अवगाहन कर सकता है।

स्रोत
  • पोथी : जांभोजी री वाणी ,
  • सिरजक : जांभोजी ,
  • संपादक : सूर्य शंकर पारीक ,
  • प्रकाशक : विकास प्रकाशन, बीकानेर ,
  • संस्करण : प्रथम
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