नमो स्वामी दयानन्द दिव्य ज्ञान दाता।
आर्य धर्म आप बिना हाथ नहीं आता॥
वेद ध्वनी हाट बाट, दुष्टन के थाट दाट,
कलियुग को काट, जुग सत्य ना सुझाता॥
कुल को बनतो कुठार, बंस को देतो बिगार,
चारन वरन चारु, छार में छिपाता॥
व्याहृती गायत्री वृती, धारत नहीं धर्म धृती,
श्रुती ओ स्मृती सरब, धूर में धसाता॥
बकतो मैं बाद बाद, बूझत करतो विवाद,
सीतल प्रसाद सर्व जात को जिमाता॥
राधिका किसन रास, वृन्दावन व्रजविलास,
गिनका गज अजामेल, गीध पद गाता॥
राम नाम रंग रिल, कामनि कुसंग किल,
मोडन के संग मिल, माजनो गमाता॥
छत्री कुल धर्म छेक, कायर कर देत केक,
टारत नहिं एक टेक, पाव को पुजाता॥
भामनि निज छोड़ भोग, परदारा मन का प्रयोग,
जानता नहिं जुगति जोग, जन्म हार जाता॥
कुलको वह स्वधीन, और ठगके अधीन,
उमरदांन महा दीन, लाळस लुट जाता॥
नमो स्वामी दयानन्द दिव्य ज्ञान दाता।
आर्य धर्म आप बिना हाथ नहीं आता॥